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________________ .. .मरपाकाण्डका मेरा आदर-सम्मान नहीं करते, इन्होंने एक भी दिन मेरी पूजा नहीं की या कोई प्रभावना नहीं की', इस प्रकार का कोप या संक्लेश नहीं करना । इस प्रकार समताभाव से क्षुधा, तृषा एवं सत्कार-पुरस्कार आदि परीषहों को सहन करना चाहिए। यदि रसपरित्याग किया है तो रसयुक्त आहार की कथा, चिन्तन या उस रस आदि में आदर भाव न रखना, रसत्याग से उत्पन्न शरीर के सन्ताप को समता भाव से सहन करना। आतापन योग में धूप आदि आ जाने पर चित्त संक्लेशित नहीं करना एवं उसका प्रतिकार करने वाली वस्तुओं में आदर भाव न रखना। शून्य प्रदेश में निवास करते हुए सर्प, सिंह, व्याघ्र एवं पिशाच आदि से भयभीत नहीं होना । इस प्रकार अरति परीषह को जीतना। प्रायश्चित्त करते समय “गुरु ने मेरा बलाबल नहीं देखा और मुझे महान् प्रायश्चित्त दे दिया। इस प्रकार कोप न करना अथवा प्रायश्चित्त तप से उत्पन्न श्रम में संक्लेशित नहीं होना। ज्ञान विनय के प्रसंग में "क्षेत्रशुद्धि एवं कालशुद्धि आदि के निरीक्षण में गुरु मुझे ही लगाते हैं" इस प्रकार कोप न करना । अथवा उससे होने वाले श्रम में संक्लेशित न होते हुए उसे समतापूर्वक सहन करना। दर्शन विनय के प्रसंग में ‘सन्मार्ग से गिरते हुए को उठाना या स्थिर करना बड़ा कठिन है', 'जब अपने मन को भी सरल या सम्बोधित करना कठिन है तब दूसरों का तो कहना ही क्या?' इस प्रकार के संकल्प-विकल्प न कर उस श्रम को समतापूर्वक सहन करना। चारित्र विनय में भी 'ईर्या आदि समितियों का पालन अति दुष्कर है, यह जगत् जीवों से भरा है, उन्हें कहाँ तक बचाया जा सकता है?' अथवा 'ईर्यापथ से चलने में धूप आदि की बाधा अधिक सहन करनी पड़ती है।' 'जिस प्रकार दुर्जनों में कृतज्ञता मिलनी कठिन है उसी प्रकार इस कलिकाल में नौ कोटि से शुद्ध आहार मिलना कठिन है' इस प्रकार के विचार न करना चारित्र विनय है। तप विनय में उपवास आदि तप के अनुष्ठान में लगे मेरे अप्रासुक जल के प्रयोग से अथवा अशुद्ध भिक्षाग्रहण आदि से लगे असंयम के दोष 'मेरे इस तप से नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार का चिन्तन न कर उसे समता पूर्वक सहन करना। उपचार विनय में बार-बार खड़े होना, उठना, पीछे जाना, प्रतिक्षण आज्ञा पालन करना, उपकरण आदि शुद्ध करना, इतना सब और इस प्रकार से कौन प्रतिदिन कर सकता है? इस प्रकार के मलिन विचार म कर प्रफुल्लता पूर्वक विनय आदि करनी चाहिए। तप की उपकारता साम्यक् तप नवीन कर्मों को रोकता है, चिरकाल से संचित कर्मों की निर्जरा करता है, एवं इन्द्र, चक्रवर्ती आदि की सम्पदाएँ देता है। सम्यक्तप के अलाभ से ही मुझे जन्म-मरण के चक्र तथा दुखों से भरे संसार-समुद्र में भ्रमण करना पड़ा है तथा करना पड़ेगा। इस प्रकार तप के द्वारा होनेवाले उपकारों का चिन्तन कर एवं तप में अनुराग कर उसी के लिए उद्यमशील रहना चाहिए।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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