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________________ 'मरणकण्डिका - ४९ बचनगुप्ति - असत्य, कर्कश, कठोर तथा मिथ्यात्व एवं असंयम पोषक वचन नहीं बोलना वचनगुप्ति है कायगुप्ति - काय से ममत्व का त्याग अथवा उठने, बैठने, चलने, बोलने, खाने-पीने एवं वस्तु को रखने-उठाने रूप शारीरिक क्रियाएँ अप्रमाद पूर्वक करना कायगुप्ति है। समितियाँ प्रवृत्ति रूप और गुप्तियाँ निवृत्ति रूप होती हैं। इस प्रकार इन्द्रिय-अप्रणिधान, कषायअप्रणिधान, समिति एवं गुप्ति रूप आत्म-परिणति चारित्र-विनय है। तप विनय परीषह-सहिष्णुत्वं श्रद्धोत्तरगुणोद्यमः । योग्यावश्यक-सम्बन्धे, हान्युत्सेध-निराकृतिः ।।१२० ।। अर्थ - सम्यक् प्रकार से अर्थात् संक्लेश एवं दीनता बिना परीषह सहन करना, उत्तरगुण अर्थात् संयम में उद्यमशील रहमा तथा हीनाधिकता के परिहारपूर्वक योग्य समय में आवश्यकों का पालन करना तप विनय है।।१२०॥ प्रश्न - संयम को उत्तरगुण क्यों कहा, चारित्र क्यों नहीं कहा और तप विनय में इसका ग्रहण क्यों किया गया है? उत्तर - चारित्र ही संयम है और संयम ही चारित्र है। इनमें मात्र शब्दभेद है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के उत्तरकाल में चारित्र की उत्पत्ति होती है अतः चारित्र या संयम को उत्तरगुण कहते हैं। श्रद्धा और ज्ञान के बिना असंयम का त्याग नहीं होता और यदि कोई कर भी दे तो उसे सम्यक् चारित्र नाम प्राप्त नहीं होता । संयमरहित तपश्चरण का श्रम व्यर्थ है। संयम का उद्योत करने वाला तपश्चरण ही निर्जरा का कारण होता है, अत: संयम को तप का परिकर कहा गया है। तप विनय में संयम को ग्रहण किया गया है। प्रश्न - तप विनय में परीषह सहिष्णुत्व' पद क्यों दिया गया है और परीषह-सहिष्णु बनने के लिए क्या करना चाहिए? उत्तर - अनशन, अवमौदर्य एवं रस-परित्याग आदि ये तप के भेद हैं। इन तपों के आचरण में क्षुधातृषा आदि की वेदना होना स्वाभाविक है। उस वेदना को शान्तिपूर्वक सहन करना, संक्लेशित नहीं होना ही परीषहजय है। यहीं संकेत देने हेतु श्लोक में 'परीषहसहिष्णुत्वं' पद दिया गया है। उपवास आदि तप ग्रहण कर लेने के पश्चात् भूख-प्यास की वेदना से व्याकुल न होना कि मैं इसे कैसे सहूँगा, भोजनकथा में आदरभाव न रखना, व्याकुलता पूर्वक यहाँ-वहाँ न घूमना, खान-पान के चिन्तन में मन नहीं लगाना, मैं भूख-प्यास से पीड़ित हूँ ऐसी वाणी नहीं बोलना, पारणा के दिन भी याचना नहीं करना, 'उपवास से कमजोर मैं रूखा-सूखा भोजन नहीं कर सकता, मुझे दूध-घी आदि मिलना चाहिए ऐसी याचना अथवा चिन्तन नहीं करना, दूध आदि की ओर आँख आदि से संकेत नहीं करना, दूध आदि इष्ट पदार्थ दिये जाने पर मुख प्रफुल्लित नहीं करना, न दिये जाने पर मुख पर क्रोध न लाना, 'मैं महान तपस्वी हूँ फिर भी ये धर्मात्माजन
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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