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मरणकण्डिका - ४८
अर्थ - (इन्द्रिय और कषाय रूप आत्म-परिणति होना प्रणिधान है।) प्रणिधान दो प्रकार का है। इन्द्रिय प्रणिधान और अनिन्द्रिय अर्थात् मन प्रणिधान । शब्द, रस आदि विषय रूप आत्म-परिणति इन्द्रिय प्रणिधान है, तथा मान, मदादि कषाय विषयक आत्म-परिणति अनिन्द्रिय प्रणिधान है ।।११७।।
उक्तं शब्दे रसे रूपे, स्पर्श गन्थे शुभेऽशुभे -
रागद्वेष-विधानं यत्तदाय प्रणिधानकम् ॥१८॥ अर्थ - शुभ या अशुभ अथवा मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गन्ध में राग-द्वेष होना इन्द्रिय प्रणिधान है ।।११८॥
मान-माया-मद-क्रोध-लोभ-मोहादि-कल्पनम् ।
अनिन्द्रियाश्रयं ज्ञेयं, प्रणिधानमनेकधा ॥११९॥ अर्थ - मान, माया, मद, क्रोध, लोभ एवं मोहादि भाव मन में उत्पन्न होना अनिन्द्रिय अर्थात् कषाय प्रणिधान है। यह अनेक प्रकार का है।।११९ ।।
प्रश्न-इन्द्रिय प्रणिधान और कषाय प्रणिधान से आत्मा का अर्थात् चारित्र का क्या अविनय होता है?
उत्तर-पंचेन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में रागद्वेष होना इन्द्रिय-प्रणिधान है, तथा आत्मा को जो कषती है अर्थात् कष्ट देती है उसे कषाय कहते हैं। जैसे वृक्ष की छाल का रस वस्त्र से सम्बद्ध हो जानेपर उसकी सफेदी और स्वच्छता को आच्छादित कर देता है, वस्त्र को टिकाऊ कर देता है और उसका वस्त्र से दूर हो जाना भी अशक्य होता है वैसे ही आत्मा से सम्बद्ध होनेवाली कषाय आत्मा की ज्ञान-दर्शन-रूप शक्ति को आच्छादित करती रहती है, आत्मा में कर्मों की स्थिति को दृढ़ करती रहती है और आत्मा से बड़े कष्ट अर्थात् प्रबल पुरुषार्थ पूर्वक छूटती है। इस प्रकार के इन दोनों प्रणिधानों में मन की एकाग्रता होना अर्थात् रागद्वेषनिवृत्तिरूप आत्मपरिणति न होना ही चारित्र का अविनय है।
प्रश्न - पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये चारित्रात्मक ही हैं, फिर यहाँ समिति तथा गुप्ति को चारित्र का विनय कह कर इन्हें चारित्र से पृथक् क्यों किया गया है? तथा इनका स्वरूप क्या है?
उत्तर - यहाँ चारित्र शब्द से पाँच महाव्रत ही ग्राह्य हैं। गुप्ति और समितियाँ तो उन व्रतों की परिकर हैं और परिकर की विनय द्वारा ही मूल वस्तु का द्योतन होता है।
समिति - जो प्रवृत्ति जीवसमूहों के स्वरूप के ज्ञान एवं श्रद्धान पूर्वक की जाती है उसे सम्यक् प्रवृत्ति कहते हैं और इसी सम्यक प्रवृत्ति का नाम समिति है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग के भेद से ये समितियाँ पाँच प्रकार की हैं।
गुप्ति - संसार के कारणों से आत्मा के गोपन को अथवा मन, वचन, काय की क्रियाओं की स्वच्छन्दता के निग्रह को गुप्ति कहते हैं। मन, वचन और काय के भेद से ये तीन प्रकार की होती हैं।
मनगुप्ति - मन का रागद्वेष आदि से प्रभावित न होना मनोगुप्ति है।