SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ५२१ कीड़ा विष्ठा समूह में घुस जाता है। अनंतर किसी एक दिन देवरति किसी ज्ञानी मुनिसे अपने पिताके कीड़ा होना आदिका वृत्तांत कहकर पूछता है कि हे पूज्यवर ! पिताकी इच्छानुसार उनकी इस निंद्य पर्यायको नष्ट करने के लिये मैंने प्रयत्न किया किन्तु वह कीड़ा तो विष्ठामें भीतर भीतर घुसता है सो क्या कारण है ? मुनिराजने कहा यह संसारी मोहीप्राणी जहाँ जिस पर्यायमें जाता है वहाँ उसी में रमता है, यही मोह की विचित्र लीला है, इस पर्यायबुद्धि के कारण ही आजतक जीवों का कल्याण नहीं हुआ है । इत्यादि, अनेक प्रकारसे देवरतिको वैराग्यप्रद उपदेश दिया जिससे राजाने भोगों से विरक्त हो जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। देवो महर्द्धिको भूत्वा पवित्र गुण-विग्रहः । गर्भे वसति वीभत्से, धिक्संसारमसारकम् ।। १८९५ ।। अर्थ यह जीव पुण्योदय से पवित्र गुणों से सहित, सम धातु रहित दिव्य वैक्रियिक शरीर तथा अणिमा-महिमादि अष्ट महा ऋद्धियों से सम्पन्न वैमानिक देव होकर भी आयु पूर्ण होने के पश्चात् घिनावने गर्भ में आकर नौ मास तक मस्तक नीचे और पैर ऊपर कर निवास करता है। हाय ! इस असार संसार को धिक्कार है, धिक्कार है ।। १८९५ ।। प्रश्न देव कितने प्रकार के होते हैं और उनकी ऋद्धियों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। इनमें से वैमानिक देवों की ऋद्धियाँ अधिक प्रभावशाली होती हैं। अणिमाऋद्धि - दिव्यबल, वीर्य, विक्रम, शरीर और आयु वाले देव अणिमा ऋद्धि द्वारा अपने वैक्रियिक शरीर को अत्यन्त सूक्ष्म बना सकते हैं। महिमा शरीर बहुत बड़ा बना सकते हैं। लघिमा अर्कतूलवत् हल्का शरीर निर्माण कर सुदूर तक ऊपर उठ सकते हैं। गरिमा पर्वत से भारी शरीर बनाकर बड़ोंबड़ों को रोक सकते हैं। प्राप्ति अपने स्थान पर रहकर अर्थात् पृथ्वी पर खड़े रह कर सुदूरवर्ती सुमेरु की चोटी के अग्रभाग का स्पर्श कर सकते हैं। प्राकाम्य - इच्छानुसार हजारों रूप बना सकते हैं अर्थात् पृथ्वी, जल, अमि, वायु, काष्ठ और प्राणियों के शरीर में भी प्रवेश कर उन्हीं के सदृश हो जाते हैं। ईशत्व - ऐश्वर्य एवं प्रभावशाली होकर बिना प्रयत्न के देवों और मनुष्यों का स्वामित्व कर सकते हैं। वशित्व सबको अर्थात् चपल स्वभावी मृर्गों को भी अपने वश में कर सकते हैं। - - - यत्र खादति पुत्रस्य, जनन्यपि कलेवरम् । तत्तत्रामुत्र वा बन्धौ शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ।। १८९६ ।। - देव इन ऋद्धियों के अतिरिक्त और भी अनेक विशेषताओं से युक्त हुआ करते हैं, किन्तु आयु समाप्त होते ही मनुष्य भव में आकर माता के वीभत्स गर्भालय में पड़े रहते हैं, अतः ज्ञानीजन संसार के किसी भी पदार्थ से स्नेह नहीं करते। अर्थ - जहाँ माता भी अपने पुत्र के शरीर को खा जाती है वहाँ इस लोक या परलोक में यदि बन्धुजन शत्रु बन जाते हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य है ? || १८९६ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy