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________________ मरणकाण्डका -१६९ आयापाय दिशस्तु समीपे, स्थेयं बुद्धिमता क्षपकेण । तत्राराधयते चतुरङ्गम्, नूनं विघ्नमशेषमपास्य ॥४९२॥ इति आपायदिक् ।। अर्थ - अतः बुद्धिमान् क्षपक मुनि को चाहिए कि वह आय-अपायदर्शक आचार्य के निकट रहे। उनके निकट में ही निश्चय से चार आराधमा सर्व विघ्नरहित सम्पन्न होती है ।।४९२॥ इस प्रकार आयापायदर्शी वर्णन पूर्ण हुआ। आचार्य के अवपीड़क या उत्पीड़ी गुण का कथन कश्चनाकथने दोषे, दोषाणां कथने गुणे। वक्रात्मा कथ्यमानेऽपि, नालोचयति तत्त्ववित् ॥४९३॥ __ अर्थ - आयापायदर्शी निर्यापक के द्वारा आलोचना के अभाव में होनेवाले दोष और आलोचना से होनेवाले गुण समझा दिये जाने पर भी कोई कुटिल बुद्धि क्षपक अपने दोर्षों की आलोचना नहीं करता है।।४९३ ॥ एकान्ते मधुरं स्निग्धं, गम्भीरं हृदयङ्गमम् । स वाच्यः सूरिणा वाक्यं, प्राञ्जली-कुर्वता मनः॥४९४ ।। अर्थ - जो क्षपक अपने अपराध नहीं कहता है उसे आचार्य किसी रमणीक एकान्त प्रदेश में ले जाकर अत्यन्त मधुर, स्नेह भरे, गम्भीर और हृदय का हरण करनेवाले सुन्दर वचन कह कर समझाते हैं और उसके मन को निर्मल करते हैं।।४९४ ॥ प्रश्न - आचार्यदेव कैसे वचनों का प्रयोग कर क्षपक के मन को आलोचना के लिए उद्यत करते हैं? उत्तर - अपने दोष न कहनेवाले क्षपक को आचार्यदेव एकान्त में ले जाकर मधुर वाणी से समझाते हैं कि प्राप्त सन्मार्ग में रत्नत्रय के निरतिचार-पालन में सावधान हे आयुष्मन् ! लज्जा, भय और मान छोड़ कर आप अपने दोष निर्भय होकर कहो। गुरुजन तो माता-पिता के सदृश होते हैं, उनसे दोष कहने में क्या भय और क्या लज्जा ? क्या बालक अपनी माँ से सब बात नहीं कहता है ? गुरुजन अपने दोषों के समान दूसरे साधुओं के दोष भी किसी से नहीं कहते हैं। वे तो प्रगट होते हए यतिधर्म के दोषों को दूर करने में सदैव तत्पर रहते हैं, अत; क्या वे आपकी अपकीर्ति की इच्छा करेंगे ? कदापि नहीं करेंगे, क्योंकि मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व प्रधान है और यतिजनों में दोष लगाना या उनके दोष प्रगट करना सम्यग्दर्शन का अतिचार है। यदि रत्नत्रय रूपी कमलों का वन अतिचाररूपी हिमपात से नष्ट हो तो वह सुशोभित नहीं होता । परनिन्दा से तो नीचगोत्र का आम्नव होता है। निन्दा करके दूसरों के मन को असह्य सन्ताप देनेवालों को असातावेदनीय कर्म का भी बन्ध होता है और संघस्थ साधुजन भी उस आचार्य की निन्दा करते हैं कि देखो ! अपने धर्मपुत्र को यह अपयशरूपी कीचड़ से लिप्त कर रहा है। इस प्रकार दूसरों के दोष प्रगट करना अनेक अनर्थों की जड़ है, कौन समझदार ऐसा पाप करेगा ? अतः आप हमारा विश्वास करो और निःशंक होकर आलोचना करो। हम तुम्हारे दोष किसी के समक्ष प्रगट नहीं करेंगे।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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