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________________ मरणकण्डिका - १७० कथायामकथायां च, दोषाणां गुण-दोषयोः। कथायामपि नो कश्चिदालोचयति वक्रधीः ।।४९५ ।। अर्थ - 'गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना कर देने में बहुत गुण हैं और आलोचना न करने में बहुत दोष हैं' आचार्य के द्वारा ऐसा समझाये जाने पर भी कोई बक्रबुद्धि क्षपक आलोचना नहीं करता ।।४९५ ।। दोषमुद्गाल्यते तत्स्थमुत्पीड्योत्पीडनो यतिः । मांसं कण्ठीरवेणेय, शृगालः कुर्वता भयम् ॥४९६ ॥ अर्थ - क्षपक द्वारा आलोचना न किये जाने पर जैसे सिंह स्यार के पेट में गये हुए मांस को उगलवा लेता है, जैसे ही अवपांडक गुण यार: आचार्य क्षयक के अन्तर में छिपे हुए दोषों को ताड़ना देकर बाहर निकाल लेता है।।४९६॥ प्रश्न - आचार्यदेव किस प्रकार की ताड़ना देकर क्षपक के दोष निकाल लेने में सफल होते हैं? उत्तर - क्षपक के हृदयंगत दोष उगलवाने हेतु आचार्य ताड़ना देते हुए कठोर वाणी में कहते हैं कि हे मायावी क्षपक ! आप हमारे सामने से दूर हट जाओ। आपको हमसे अब क्या प्रयोजन है? जो अपने शरीर का मल धोना चाहता है वही काच सदृश निर्मल जलयुक्त सरोवर पर जाता है। अथवा महान् रोग से मुक्त होकर जो व्यक्ति नीरोग होना चाहता है वहीं वैद्य की शरण लेता है। इसी प्रकार जो क्षपक रत्नत्रय में लगे हुए अपने दोषों को अर्थात् अतिचारों को दूर कर रलत्रय को विशुद्ध करना चाहता है वहीं गुरुजनों की शरण में जाता है। आपको तो अपने रत्नत्रय की शुद्धि करने में आदर भाव है ही नहीं, तब क्षपक का यह वेष धारण करने से क्या लाभ ? केवल चार प्रकार के त्याग से सल्लेखना नहीं होती, सल्लेखना तो कषायों को कृश करने से होती है और तभी संवर, निर्जरा होती है। कषायों से तो नवीन कर्मों का ग्रहण एवं स्थिति-अनुभाग बन्ध ही होता है, अत: ये तो त्यागने योग्य हैं। उन कषायों में माया कषाय अत्यन्त खराब है और आप इसी को लिये बैठे हो, यह माया ही जीव को तिर्यञ्चगति में ले जाती है। आप इसे छोड़ने में असमर्थ हैं, अत: आए संसार-समुद्र के तिर्यञ्च भवरूपी भंवर में फंसने का उद्यम कर रहे हो। ध्यान रखो कि इस भंवर में से निकलना अत्यन्त कठिन होगा। मात्र वस्त्र के त्याग से अपने को निर्ग्रन्थ मानने का अभिमान करना व्यर्थ है । चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से ही भाव नैर्ग्रन्थ्य होता है और यही मुक्ति का उपाय है। दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग भाव नैर्ग्रन्थता का उपाय है, अतः वह भी मुमुक्षु के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जीव और पुद्गल के सम्बन्ध मात्र से कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु उनके निमित्त से होनेवाले जीवके परिणामों से कर्मबन्ध होता है। आपके परिणाम अभी शुद्ध नहीं हैं। हे अपराधी क्षपक ! ध्यान दो कि सातिचार सम्यग्दर्शन आदि मुक्ति के उपाय नहीं हैं। 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है।' क्या यह जिनागम वचन आपके कानों में अभी तक नहीं पहुँचा ? जो अभी तक अतिचार छिपा रहे हो, ध्यान रखो! गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का पालन करने से ही रत्नत्रय निरतिचार होता है और गुरु भी प्रायश्चित्त उसी को देते हैं जो निर्दोष आलोचना करता है। इतना समझाने पर भी जब तुम दोष नहीं उगल पा रहे हो तब मुझे लगता
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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