SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ + १२+ बने। सतत परिश्रम, अनवरत अभ्यास और सच्ची लगन के बल पर पूज्य माताजी ने विशिष्ट ज्ञानार्जन कर लिया। यहाँ इस बात का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि दीक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में आहार में निरन्तर अन्तराय आने के कारण आपका शरीर अत्यन्त अशक्त और शिथिल हो चला था पर शरीर में बलवती आत्मा का निवास था । श्रावकों वृद्धों ही नहीं अच्छी आँखों वाले युवकों की लाख सावधानियों के बावजूद भी अन्तराय आहार में बाधा पहुँचाते रहे। आर्यिका श्री की कड़ी परीक्षा होती रही। असाता के शमन के लिए अनेक लोगों ने अनेक उपाय करने के सुझाब दिये। आचार्यश्री ने कर्मोपशमन के लिए बृहत्शांतिमंत्र का जाप करने का संकेत किया पर आर्यिका श्री का विश्वास रहा है कि समताभाव से कर्मों का फल भोगकर उन्हें निर्जीर्ण करना ही मनुष्य पर्याय की सार्थकता है, ज्ञान की सार्थकता है। आपकी आत्मा उस विषम परिस्थिति में भी विचलित नहीं हुई, कालान्तर में वह उपद्रव कारण पाकर शमित हो गया। पर इस अवधि में भी उनका अध्ययन सतत जारी रहा। आर्यिका श्री द्वारा की गई 'त्रिलोकसार' की टीका के प्रकाशन के अवसर पर प. पू. आचार्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज ने आशीर्वाद देते हुए लिखा "सागर महिलाश्रम की अध्ययनशीला प्रधानाध्यापिका सुमित्राबाई ने अतिशय क्षेत्र पपौरा में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् कई वर्षो तक अन्तरायों के बाहुल्य के कारण शरीर से अस्वस्थ रहते हुए भी धर्मग्रन्थों के पठन प्रवृत्त रहीं। आपने चारों ही अनुयोगों के निम्नलिखित ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। करणानुयोग सिद्धान्तशास्त्र धवल ( १६ खण्ड), महाधवल ( दो खण्डों का अध्ययन हो चुका है, तीसरा खण्ड चालू है ।) द्रव्यानुयोग समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, इष्टोपदेश, समाधिशतक, आत्मानुशासन, वृहद्रव्यसंग्रह । न्यायशास्त्रों में न्यायदीपिका, परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला। व्याकरण में कातन्त्ररूपमाला, कलापव्याकरण, जैनेन्द्र लघुवृत्ति, शब्दार्णवचन्द्रिका | चरणानुयोग - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, मूलाराधना, आचारसार, उपासकाध्ययन । प्रथमानुयोग - सम्यक्त्व कौमुदी, क्षत्रचूड़ामणि, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि ।" (त्रिलोकसार : आद्य पृ. ६) इसप्रकार पूज्य माताजी ने इस अगाध आगम वारिधि का अवगाहन कर अपने ज्ञान को प्रौढ़ बनाया | जिसका फल हमें साहित्यसृजन के रूप में उनसे अनवरत प्राप्त हुआ। 'जिनवाणी की सेवा' ही उनका व्रत हो गया था। उन्होंने आचार्यों द्वारा प्रणीत करणानुयोग के विशालकाय प्राकृत संस्कृत ग्रंथों की सचित्र सरल सुबोध भाषाटीकायें लिखीं, साथ ही सामान्य जनोपयोगी अनेक छोटी-बड़ी रचनाओं का भी प्रकाशन किया। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य की सूची इस प्रकार है भाषाटीकाएँ : १. सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार टीका । २. भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसारदीपक टीका । ३. यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोयपण्णत्ती की हिन्दी टीका (तीन खण्डों में ) ४. क्षपणासार ५. अमितगति आचार्यविरचित योगसार प्राभृत ( प्रश्नोत्तर टीका ) ६. मरणकण्डिका ( प्रश्नोत्तर टीका )
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy