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________________ मरणकण्डिका - ४०५ त्रिवली - कलितालीको, रक्त स्तब्धी - कृतेक्षणः । दन्त - दष्टाधरो दुष्टो, जायते राक्षसोपमः || १४३३ ।। अर्थ - भृकुटी चढ़ जाने से मस्तक पर तीन रेखाएँ पड़ जाती हैं, लाल-लाल निश्चल आँखें बाहर आ जाती हैं एवं दाँतों से ओलों को चबाने लगता है, इस प्रकार क्रोधी मनुष्य हरे मनुष्यों के लिए साक्षात् राक्षस के सदृश भयानक एवं दुष्ट हो जाता है ॥ १४३३ ।। आददानो यथा लोहं, पर - दाहाय कोपतः । स्वयं प्रदयते पूर्व, पर- दाहे विकल्पनम् ॥१४३४ ॥ विदधानस्तथा कोपं, पर - घाताय मूढ - धीः । स्वयं निहन्यते पूर्वमन्य घातो विकल्प्यते ॥१४३५ ।। अर्थ - जैसे कोई क्रोध में आकर दूसरे को जलाने के लिए गर्म लोहा उठाता है, किन्तु उससे पहले वह स्वयं जलता है, दूसरा जले अथवा न भी जले। वैसे ही कोई मूढबुद्धि पर का घात करने हेतु क्रोध करता है किन्तु उस क्रोध से पहले वह स्वयं जलता है। अन्य का घात कर सके अथवा न भी कर सके, इसमें दोनों विकल्प सम्भव हैं ॥ १४३४-१४३५ ।। - आधारं पुरुषं हत्वा पापः कोप: पलायते । प्रद जनकं काष्ठं, वह्निः किं नोपशाम्यति ।। १४३६ ।। अर्थ - यह पापी क्रोध अपने आधारभूत पुरुष को नष्ट करके स्वयं भाग जाता है। अर्थात् निराधार हो जाने से स्वयं नष्ट हो जाता है, सो ठीक है ! देखो ! अपने को उत्पन्न करने वाली अग्नि आधारभूत लकड़ी को जला कर क्या शान्त नहीं हो जाती ? अपितु हो ही जाती है ॥१४३६ ॥ शत्रूपकाराद्रोषो यः, स्व- बन्धूनां च शोककृत् । स्थानं कुलं बलं क्रोधं हत्वा नाशयते नरम् ॥१४३७ ॥ अर्थ - यह क्रोध शत्रु का उपकार करता है और स्व-जनों को शोक कराने वाला है, यह स्थान, कुल एवं बल को नष्ट करके अन्त में मनुष्य का भी नाश करा देता है || १४३७ ।। प्रश्न क्रोध शत्रु का उपकार एवं स्वजनों का अपकार कैसे करता है ? उत्तर जब मनुष्य कुपित हो जाता है तब उसके शत्रुओं को आनन्द आता है और वे ऐसी भावना भाते हैं कि यह सदैव इसी प्रकार क्रोध पिशाच के वशीभूत बना रहे, अतः कहा गया है कि क्रोध शत्रुओं का उपकार करता है। क्रोधी मनुष्य के स्वजन दुखी रहते हैं क्योंकि क्रोध में आकर वह अपने परिवार को कष्ट देता है। क्रोध से अपने उच्च पद, शारीरिक बल और कुल को भी नष्ट कर देता है अतः कहा गया है कि क्रोधी मनुष्य स्वजनों को शोक सन्तप्त करता रहता है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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