SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ४०६ गुणागुणौ न जानाति, वचो जल्पति निष्ठुरम् । नरो रौद्रमना सृष्टो, जायते नारकोपमः ।।१४३८ ।। अर्थ - क्रोधी मनुष्य अत्यन्त क्रूर परिणामी हो जाता है, वह जिस पर क्रोध करता है उसके गुणअवगुण नहीं देख पाता, उसके गुणों को भी निन्दा करता है और कठोर तथा असभ्य वचन बोलता है। इस प्रकार क्रोध के आवेश में मनुष्य नारकी के समान हो जाता है ।।१४३८॥ धान्यं कृषीवलस्येव, पावकः क्लेशतोऽर्जितम्। श्रामण्यं प्लोषते रोषः, क्षणेन व्रतिनोऽखिलम् ॥१४३९ ।। अर्थ - जैसे आग एक वर्ष पर्यन्त अनेक क्लेश सहन करके श्रम से प्राप्त खलिहान में आये किसान के धान्य को जला देती है, वैसे ही क्रोधाग्नि श्रमण के जीवन भर में उपार्जित पुण्य रूपी धान्य को अर्थात् श्रामण्यधर्म को क्षणमात्र में जला देती है॥१४३९॥ यथैवोग-विष:सर्पः, क्रुद्धो दर्भ-तृणाहतः । निर्विषो जायते शीघ्रं, निःसारोऽस्ति तथा यतिः ।।१४४० ।। अर्थ - जैसे विधवाले सपं को घास के एक सिनक से मारने पर वह रोष में आकर उस तिनके पर अपना विष वमन कर तत्काल निर्विष हो जाता है, वैसे यति भी क्रोध के कारण अपने रत्नत्रय का विनाश कर निःसार हो जाता है ।।१४४० ।। सुरूपोऽपि नरो रुष्टो, जायते मर्कटोपमः । कोपोपार्जित-पापश्च, विरूपो जन्म-कोटिषु ।।१४४१॥ अर्थ - सुन्दर मनुष्य भी क्रोधित होने पर बन्दर जैसे मुख वाला अर्थात् कुरूप हो जाता है और उस क्रोध के द्वारा उत्पन्न हुए पाप के कारण करोड़ों जन्मों में कुरूप ही होता रहता है ।।१४४१ ।। द्वेष्यो जनः प्रकोपेन, जायते वल्लभोऽपि सन् । अकृत्य-कारिणस्तस्य, नश्यति प्रथितं यशः ॥१४४२॥ अर्थ - क्रोध करने से अत्यन्त प्रिय व्यक्ति भी अप्रिय बन जाता है तथा वह क्रोधावेश में अकृत्य भी करने लगता है, जिससे उसका फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है ।।१४४२ ॥ कुपित: कुरुते मूढो, बान्धवानपि विद्विषः। परं मारयते तैर्वा, मार्यते म्रियते स्वयम् ।।१४४३ ॥ अर्थ - मूढ़ बुद्धि मनुष्य क्रोध करके अपने निकट बन्धुजनों को या सम्बन्धियों को भी शत्रु बना लेता है, उनको मारता है, या उनके द्वारा मारा जाता है या स्वयं मर जाता है।।१४४३ ।। रुषित: पूजनीयोऽपि, मण्डलो वापमन्यते। समस्तं लोक-विख्यातं, माहात्म्यं च पलायते ॥१४४४ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy