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________________ मरणकण्डिका - ४०७ अर्थ - पूजनीय मनुष्य भी क्रोध करने से कुत्ते के सदृश तिरस्कृत होने लगता है और उसका लोकप्रसिद्ध भी माहात्म्य नष्ट हो जाता है ।।१४४४ ॥ कृत्वा हिंसानृत-स्तेय कर्माणि कुपितो यथा । सर्व हिंसानृत-स्तेय-दोषमाप्नोति निश्चितम् ।।१४४५ ।। अर्थ - क्रोधावेश में मनुष्य हिंसा, झूठ एवं चोरी आदि पाप क्रियाओं को जिस प्रकार करता है, उसको वे हिंसा, झूठ एवं चोरी आदि सभी दोष निश्चित ही प्राप्त होते हैं ।।१४४५ ।। प्रश्न - क्रोधी मनुष्य को हिंसादि दोष कैसे प्राप्त होते हैं ? उत्तर - क्रोधावेश में मनुष्य यही किसी की हिंसा करता है, मूठादि मार देता है या मरवा देता है, या किसी पर झूठे आरोप लगा देता है, पर-धन चुरा लेता है या दूसरों पर छापे आदि डलवा देता है उससे पापबन्ध होता है, जब वह पापकर्म उदय में आता है तब अन्य लोग वैसी ही क्रियाएँ उसके प्रति करते हैं, उसे मार डालते हैं, उसके साथ असत्य व्यवहार करते हैं या उस पर झूठे आरोप लगा देते हैं, तथा कोई उसका धन हरण कर लेते हैं, इस प्रकार वह क्रोध के फलस्वरूप उन्हीं दोषों को प्राप्त करता हुआ भव-भव में भयंकर दुख भोगता द्वीपायनेन नि:शेषा, दग्धा द्वारावती रुषा। पापं च दारुणं दग्धं, तेन दुर्गति-भीतिदम् ॥१४४६ ।। इति कोपः ॥ अर्थ - द्वीपायन मुनि ने क्रोधावेश में समस्त द्वारका नगरी भस्म कर दी। वह स्वयं उसी में जला और दारुण पाप-संचय कर भयंकर दुख देने वाली दुर्गति का पात्र बना ।।१४४६।। ___* द्वीपायन मुनिकी कथा * सोरठ देशमें प्रसिद्ध द्वारिका नगरी थी। इसमें बलदेव और कृष्ण नारायण राज्य करते थे। किसी दिन दोनों बलभद्र नारायण भगवान् नेमिनाथके दर्शनके लिये समवसरणमें गये। धर्मोपदेश सुननेके अनंतर बलभद्रने प्रश्न किया कि यह द्वारिका कबतक समृद्धिशाली रहेगी। दिव्यध्वनिमें उत्तर मिला कि बारह वर्ष बाद शराबके कारण द्वीपायन द्वारा द्वारिका भस्म होगी एवं जरत्कुमार द्वारा श्रीकृष्णकी मृत्यु होगी। इस भावी दुर्घटनाको सुनकर सभीको दुःख हुआ। बहुतसे दीक्षित हुए। द्वीपायनने भी मुनिदीक्षा ग्रहणकर दूर देशमें जाकर तपस्या की। द्वारिकाकी सब शराब वनमें डाली गयी । बारह वर्षमें कुछ दिन शेष थे। द्वीपायन मुनि नगरके निकट आकर ध्यान करने लगे। बहुत से यदुवंशी राजकुमार वनक्रीड़ाके हेतु गये थे, वहाँ तृषासे पीड़ित होकर शराब मिश्रित पानीको उन्होंने पी लिया और उन्मत्त हो गये, पासमें द्वीपायन मुनिको देखकर वे कुमार उनको पत्थरोंसे मारने लगे। मुनिको क्रोध आया और उनके कंधेसे तैजस पुतला निकल गया, उस तैजस पुतलेसे समस्त द्वारिका भस्म हो गयी। द्वीपायन भी भस्म हुए और कुगतिमें चले गये। इस प्रकार क्रोध के दोषों का कथन समाप्त हुआ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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