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________________ मरणकण्डिका - ४०८ मान कषाय के दोष जाति-रूप-कुलैश्वर्य-विज्ञानाज्ञा-तपो-बलैः। कुर्वाणोऽहंकृतिं नीचं, गोत्रं बध्नाति मानवः ॥१४४७ ।। अर्थ - जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, श्रुत, आज्ञा, तप एवं बल आदि से जो अपने को बड़ा मानकर अहंकार करता है वह नीच गोत्र नामक कर्म का बन्ध करता है।।१४४७॥ दृष्ट्वात्मनः परं हीनं, मूर्यो मानं करोति ना। दृष्ट्वात्मनोऽधिकं प्राज्ञो, मानं मुञ्चति सर्वथा ॥१४४८ ॥ अर्थ - अपने से हीन व्यक्ति को देखकर मूर्ख जन अहंकार करते हैं किन्तु विद्वान् लोग अपने से बड़ों को देखकर मान का त्याग कर देते हैं।।१४४८ ।। द्वेष कलिं भयं वैरं, युद्धं दुःखं यशः क्षतिम् । पूजा-भ्रंशं पराभूति, मानी लोकद्वयेऽस्तुतः ।।१४४९।। अर्थ - अभिमानी मनुष्य से सब द्वेष करते हैं। वह कलह, भय, वैर, युद्ध और दुख देने वाले ही कार्य करता है या इनका पात्र होता है। उसके यश का नाश हो जाता है, पूजा अर्थात् प्रतिष्ठा भंग हो जाती है तथा दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होता रहता है और दोनों लोकों में निन्दा को प्राप्त होता है॥१४४९।। सर्वेऽपि कोपिनो दोषा, मानिनः सन्ति निश्चितम्। मानी हिंसानृत-स्तेय- मैथुनानि निषेवते ॥१४५०।। अर्थ - पहले जो क्रोध के दोष कहे गये हैं वे सब दोष मानकषाय के भी जानने चाहिए | मानी मनुष्य भी हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील आदि पापों में प्रवृत्ति करने लगता है ।।१४५० ।। ___निरभिमानी की प्रशंसा निर्मानो लभते पूजा, दुःखं गर्वमपास्यति। कीर्ति साधयते शुद्धामास्पदं भवति श्रियाम् ॥१४५१ ॥ अर्थ - निरभिमानी व्यक्ति स्वजनों-परजनों से आदर प्राप्त करता है, दुख देने वाले गर्व को दूर कर देता है, निर्मल कीर्ति को सिद्ध कर लेता है और अन्त में मोक्षलक्ष्मी के शुद्ध स्थान को प्राप्त कर लेता है।।१४५१॥ मार्दवं कुर्वतो जन्तोः, कश्चनार्थो न हीयते। सम्पद्यते परं सद्य:, कल्याणानां परम्परा ॥१४५२॥ अर्थ - मान के अभाव में अर्थात् मार्दव गुण युक्त जीवों के किसी भी प्रयोजन की हानि नहीं होती, अपितु मार्दव धर्मधारी विनयवान मनुष्यों को अभ्युदयादि कल्याणों की परम्परा तत्काल प्राप्त हो जाती है ।।१४५२ ।। मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा, महाबलाः षष्ठि-सहस्र-संख्याः । दृढेन भिन्नाः कुलिशेन तुङ्गा, धराधरेन्द्रा इव भूरि-सत्वाः ॥१४५३॥ ॥ इति मानः ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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