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________________ मरणकण्डिका - ४८२ उत्तर - येन-केन-प्रकारेण क्षपक के गृहीत व्रतों की रक्षा करना ही आचार्य का प्रमुख कर्तव्य है। अनेकानेक प्रकार के उपदेश द्वारा भी जब क्षपक का धैर्य स्थिर नहीं रहता है तब आचार्य क्षपक को प्रशंसात्मक वाक्यों द्वारा व्रतों में एवं प्रत्याख्यान आदि में कवचवत् दृढ़ बनाते हैं। अपनी प्रशंसा सुन कर एवं राजा आदि का आगमन देखकर क्षपक मन में विचार करता है कि मेरी समाधि की दृढ़ता देखने हेतु ये राजादि महापुरुष यहाँ पधारे हैं. इनके समक्ष मेरे प्राण चले जाँय तो भी कोई बात नहीं. मैं तो सर्वथा धैर्य ही धारण करूंगा। मैं धर्म की प्रतिष्ठा, संघ का आदर्श और अपना मान नष्ट नहीं करूंगा। इससे भी अधिक पीड़ा उत्पन्न हो जाय तो भी व्रत भंग करके अपना अपयश नहीं कराऊँगा, इत्यादि। इस प्रकार क्षपक के मन में स्वाभिमान की रक्षा के भाव उत्पन्न कराकर आचार्यदेव दृढ़ कवच करते हैं अर्थात् क्षपक के व्रतों की रक्षा करते हैं। इत्येष कवचोऽवाचि, संक्षेपेण श्रुतोदितः। विशेषेणापि कर्तव्यो, दुःखे सति दुरुत्तरे ।।१७६५ ।। अर्थ - इस प्रकार यहाँ आगमानुसार कवच का सामान्य स्वरूप कहा है। यदि कर्मवशात् क्षपक को कोई दुरुत्तर दुख उत्पन्न हो जाय तो उसके परिणामों की स्थिरता हेतु विशेष रूप से भी कवच करना चाहिए॥१७६५॥ प्रश्न - कवच किसे कहते हैं ? तथा सामान्य कवच कब करना चाहिए और विशेष कवच कब करना चाहिए ? उत्तर - कवच का अर्थ है, रक्षा करना। युद्ध में कवच पहन कर जाने वाले योद्धा का हृदय जैसे बाणादि शस्त्रों से ताड़ित नहीं हो पाता, जिससे योद्धा में युद्ध करने की फुर्ती रहती है और उत्साह यथावत् बना रहता है। वैसे ही प्रशंसनीय या वैराग्य-वर्धक या संवेगवर्धक या शरीर की असारतावर्धक मधुर वचनों द्वारा क्षपक के हृदय को दृढ़ बनाये रखना और उसके धैर्य भावों की रक्षा करना 'कवच' कहलाता है। जिसका मरण अभी दूर है उसके लिए ऊपर कहे अनुसार सामान्य रूप से कवच करना चाहिए किन्तु आसन्न मरण वाले क्षपक को ध्यान में या समता परिणामों में विघ्न डालने वाली कोई पीड़ा या भूख-प्यास का कोई विशेष दुख यदि तत्काल उत्पन्न हो जाता है तो उसे दूर करने के लिए अपवादरूप किन्तु यथायोग्य विशेष कवच करना चाहिए। स्तोष्यते क्षपकः सूरेर्वचनैर्हदयङ्गमैः। चन्द्रस्येव करैः शुद्धैः, शीतलैः कुमुदाकरः॥१७६६ ।। अर्थ - जैसे चन्द्रमा की शुद्ध एवं शीतल किरणों से रात्रिक्किासी कमलों का सरोवर विकसित हो जाता है, वैसे ही आचार्यदेव के हृदयग्राही, मधुर एवं हितकर वचन सुनते ही क्षपक का मन प्रसन्न हो जाता है, मन के भाव शुद्ध हो जाते हैं और वह व्रताचरण में आत्मविश्वासपूर्वक स्थिर हो जाता है ।।१७६६ ।। क्षणेन दोषोपचयापसारिणः, समेत्य वाक्यानि तमोऽपहारिणः । जड़ोऽपि सूरेः क्षपको विबुध्यते, महांसि भानोरिव नीरजाकरः ॥१७६७॥ अर्थ - जैसे रात्रि को दूर करने वाली एवं अन्धकार को नष्ट करने वाली सूर्य की किरणों का स्पर्श प्राप्त
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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