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________________ मरणाकण्डिका - ४८१ सल्लेखना-श्रमं साधो ! चारित्रं च सुदुश्चरम् । मास्म त्याक्षीजगत्सारमल्प-सौख्य-जिघृक्षया ॥१७६० ॥ अर्थ - हे साधो ! जगत् में सारभूत इस सल्लेखना के श्रम को अर्थात् अनशन आदि तप द्वारा तथा जल आदि चारों प्रकार के आहार के त्याग द्वारा तुमने शरीर को कृश करने में जो परिश्रम किया है और यह अत्यन्त कठिन चारित्र धारण किया है, यह सब तुम्हें स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाला है, इसे तुम आहारजन्य अल्प सुख की वांछा से छोड़ मत देना ।।१७६० ।। पुरुषैः कथितं धीरैर्मार्ग सद्भिर्निषेवितम्। निरपेक्षाः श्रिता धन्याः, संस्तरस्था निशेरते ॥१७६१ ।। अर्थ - उपसर्ग एवं परीषहों के आने पर भी जो विचलित नहीं होते उन धीर-वीर पुरुषों द्वारा कहे गये एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सेक्ति रत्नत्रय स्वरूप इस मार्ग को अपना कर पुण्यशाली क्षपक त्याग तथा ग्रहण के विकल्पों से निरपेक्ष होते हुए संस्तर पर आरूढ़ होकर ही विशुद्ध होते हैं अर्थात् रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर पाते हैं, संस्तरारूढ़ हुए बिना नहीं ।।१७६४ ॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः । सहस्व कर्मजं दुःखं, निर्वेदन इवाखिलम्॥१७६२।। अर्थ - हे क्षपक ! यह शरीर त्यागने योग्य ही है, ऐसा मान कर शरीर से निस्पृह हो अर्थात् शरीर से ममत्व मत करो । असाताकर्म के उदय से उत्पन्न हुए दुखों को ऐसे सहन करो मानों कोई दुख है ही नहीं ।।१७६२ ।। एवं प्रज्ञाप्य-मानोऽसौ, त्यक्त-सङ्क्लेश-वासनः। अन्य-दुःखमिवात्मीय, दुःखं पश्यति सर्वदा ।।१७६३॥ ___ अर्थ - इस प्रकार उपदेश द्वारा समझाये जाने पर वह क्षपक पूर्व में उत्पन्न संक्लेश वासना को अर्थात् परिणामों को छोड़ देता है और क्षुधा-तृषादि से उत्पन्न अपने दुखों को इस प्रकार देखता है मानों ये दुख उसके शरीर में नहीं, किन्तु किसी दूसरे के शरीर में हो रहे हैं ।।१७६३ ।। मान-दान देकर कवच करने की प्रेरणा धन्यस्य पार्थिवादीनामागमादि-प्रयोगतः। क्षपकस्यापि दातव्यो, मानिनः कवचो दृढः ॥१७६४॥ अर्थ - ऐसे क्षपक को धन्य है जिसके दृढ़ कवच के लिए आचार्य प्रयोगतः अर्थात् प्रेरणा पूर्वक राजा, मन्त्री एवं ऐश्वर्यशालियों को बुला कर मान-दान देते हैं। क्योंकि राजादि के आगमन को देखकर-स्वाभिमानी क्षपक विचार करता है कि इन राजादि के सामने मेरे प्राण जाँय तो भले चले जाँय किन्तु अब मैं व्रतभंग भी नहीं करूँगा और दीनतापूर्ण वचनादि भी नहीं बोलूंगा ||१७६४ ।। प्रश्न - आचार्य प्रेरणा करके राजादि को बुलाकर स्वाभिमानी क्षपक को मान-दान देकर कवच क्यों करते हैं ?
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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