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________________ मरणकण्डिका - ४३८ त्वं पराजित्य निःशेषानुपसर्ग-परीषहान् । समाधानपरो भद्र !, मृत्यावाराधको भव ॥१५९६ ।। अर्थ - हे भद्र ! तुम समस्त परीषहों और उपसर्गों को जीतो और सावधानी पूर्वक मरणकाल में इन चतुर्विध आराधनाओं की आराधना में उद्यम करो ।।१५९६॥ प्रश्न - उपसर्गों एवं परीषों को कैसे जीतना चाहिए ? उत्तर - मन, बचन एवं काय के अशुभ या विपरीत परिणमन पर नियन्त्रण करना ही उपसर्ग एवं परीषहों का जीतना है। यथा-यह साधु डरपोक है, या क्षीणकाय है या आराधनारत है अत: दया करके भूख-प्यासादि की वेदनाएँ उसे दुख नहीं देंगी ? ऐसी बात नहीं है, कारण कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावादि सहकारी कारणों की उपस्थिति में असातावेदनीय कर्म उदय में आता ही है, उसकी शक्ति को रोकना अशक्य है, अत: वह कष्ट देता ही है, तब मैं उसे धैर्यरूपी शक्ति से जीतूंगा, कायरता नहीं आने दूंगा, मैं वीर की सन्तान हूँ अत: वीरता के कार्य ही करूँगा, ऐसी भावनाएँ उत्पन्न होना मन से जीतना कहलाता है। अयोग्य वचन नहीं बोलना और उदार या हितकारी वचन ही बोलना, इन दो प्रकारों से परीषहों आदि पर विजय प्राप्त करना । यथा - मैं अत्यन्त थक गया हूँ, ये भूख-प्यास के दुख अति दुःसह हैं, मेरी इस अतिकष्टकर और दु:सह वेदना युक्त अवस्था को देखो, मेरे शरीर में आग लगी है, मैं इन असह्य पीड़ाओं द्वारा पीटा जा रहा हूँ. इत्यादि दीनता प्रकट करने वाले अयोग्य वचन मख से नहीं बोलना। यह वचन से परीषहजय है। अथवा-मैंने पूर्व में नरकादि गतियों को प्राप्त कर इन भूख-प्यासादि की असह्य वेदनाओं को अनन्त बार सहन किया है, मैंने अनन्त बार घोर उपसर्गों का भी अनुभव किया है, जोर-जोर चिल्लाने पर या रोने पर या हाय-हाय करने पर भी ये दुख मुझे छोड़ेंगे तो नहीं ? एकत्र जनसमुदाय भी मेरे दुखों का बँटवारा नहीं करेगा? अपितु मेरी निन्दा ही करेगा कि देखो ! यह क्षपक अति कायर है, धैर्यगुण से रहित है, दीन है, बार-बार रोता और चिल्लाता है। मैं धीर-वीर हूँ, ये तो क्या, इससे भी भयंकर उपसर्गादि मुझे मेरे चारित्र से भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हैं, मेरी आत्मा इनके आधीन नहीं है, इत्यादि उदार, उत्साहवर्धक एवं धैर्ययुक्त योग्य वचन बोलना वचन से परीषह एवं उपसर्ग जय है। भूख-प्यासादि की असह्य वेदना होने पर भी मुख पर दीनता न दिखाना, आँखों से कायरता प्रकट न होने देना, मुखादि की विपरीत चेष्टा न करना, हाथ-पैर न पटकना, छटपटाहट या तड़फन व्यक्त न होने देना, शरीर को निश्चल रखना, मुख पर प्रसन्नता और हृदय का आह्लादित होना ये शरीर से परीषह और उपसर्ग जय हैं। इस प्रकार इन उपसगौ एवं परीषहों पर विजय प्राप्त कर आराधनाओं की आराधना में सम्यक प्रकार रहने पर ही रत्नत्रय की सिद्धि होती है। उपसर्गों एवं परीषहों से जिसका चित्त व्याकुल रहता है वह कदापि आराधक नहीं हो सकता। अहमाराधयिष्यामि, प्रतिज्ञा या त्वया कृता। मध्ये सधस्य सर्वस्य, तां स्मरस्यधुना न किम् ॥१५९७ ।। अर्थ - अहो क्षफ्क! तुमने चतुर्विध संघ के मध्य जो महती प्रतिज्ञा की थी कि “मैं सम्यगाराधना करूँगा" क्या आज तुम्हें वह प्रतिज्ञा स्मरण नहीं है ? क्या तुम उसे भूल गये हो ?॥१५९७ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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