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________________ मरणकण्डिका - ५९१ मोहनीय कर्मप्रकृतियों के क्षय का कम पूर्व संयोजनान्हन्ति, तेन ध्यानेन शुद्ध-धीः । मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वं, त्रितयं क्रमतस्ततः ॥२१६६ ।। अर्थ - वे शुद्ध बुद्धिधारी मुनिराज उत्तम धर्म ध्यान द्वारा सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों की विसंयोजना करके उन्हें नष्ट करते हैं। तदनन्तर मिथ्यात्व, मिश्र एवं सम्यक्च, दर्शनमोहनीय की इन तीन प्रकृतियों को क्रमश: नष्ट करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं ।।२१६६ ।। प्रश्न - क्षायिक सम्यक्त्व तो चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त के किसी भी गुणस्थान में हो सकता है तब फिर यहाँ सातवें गुणस्थान में ही उसकी प्राप्ति का क्रम क्यों कहा जा रहा है ? उत्तर - श्लोक २१६२ में आचार्यदेव ने “आरो, क्षपक श्रेणी" पद द्वारा यह निर्णय दे दिया है कि जो अप्रमत्तसंयत मुनि, क्षपक-श्रेणी चढ़ने को उद्यमशील हैं उनके क्षायिक सम्यक्त्व की बात कही जा रही है। प्रश्न - क्षायिक सम्यक्त्व किसे होता है और उसे प्राप्त करने का क्या क्रम है ? उत्तर - क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती कर्मभूमिज किसी सम्यग्दृष्टि मनुष्य के केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में होता है। यह क्षायिक सम्यक्त्व मिथ्यात्व से या सासादन से या मिश्र से नहीं होता, मात्र सम्यक्त्व से होता है। सम्यक्त्व में भी प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से न होकर मात्र वेदक सम्यक्त्व से होता है। वेदक सभ्यकची कर्मभूमिज मनुष्यों में भी द्रव्यस्त्रीवेदी एवं द्रव्य नपुंसकवेदियों को नहीं होता, मात्र द्रव्यपुरुषवेदी को होता है, द्रव्यपुरुषवेदियों में भी सर्वप्रथम अधःकरण करता है, पश्चात् अपूर्वकरण करता है, पश्चात् अनिवृत्तिकरण करता है। अनिवृत्तिकरण में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकृतियों की विसंयोजना करता है। प्रश्न - विसंयोजना किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्कन्धों का प्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायों तथा नोकषायों में संक्रमित करने का नाम विसंयोजना है। इस प्रकार विसंयोजना द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषाय का सत्ता से नाश करता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल तक विश्राम करता है। पश्चात् पुनः अध:करणादि तीनों करण करता है, इनमें से अन्तिम अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का द्रव्य मिश्र प्रकृति में और मिश्र प्रकृति का द्रव्य सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रमित कर क्रम से इन दोनों प्रकृतियों को नष्ट करता है, इसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति को स्वमुख से नष्ट कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। क्षपकश्रेणी आरोहण आरुह्य क्षपकश्रेणीमपूर्वकरणो यतिः । भूत्वा प्रपद्यते स्थानमनिवृत्तिगुणाभिधम् ॥२१६७ ।। अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्वी होने के बाद अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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