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________________ मरणकण्डिका - ११४ में प्रेम बढ़ता है, गुणों में अनुपम होने से सम्मपनि विशुद्ध होता है और उनके रत्नत्रय की अनुमोदना होती है। यह अनुमोदन पुण्य उपार्जन करने का सरल उपाय है। प्रश्न - चैत्य की भक्ति क्यों करनी चाहिए ? इस विषय में आचार्यदेव ने क्या उपदेश दिया है ? उत्तर - आचार्यदेव दृष्टान्तपूर्वक समझा रहे हैं कि - देखो ! शत्रुओं और मित्रों की प्रतिकृति अर्थात् उनके चित्र या मूर्ति दिखाई देते ही मन में द्वेष या राग उत्पन्न हो जाता है, यद्यपि त्रे प्रतिकृतियाँ वर्तमान में हमारा कोई अपकार या उपकार नहीं कर रही हैं तथापि उन शत्रुओं या मित्रों ने पूर्व में जो अपकार या उपकार किये होते हैं उनके स्मरण में वे प्रतिकृतियाँ निमित्त होती हैं। उसी प्रकार यद्यपि अर्हन्त एवं सिद्ध प्रभु के प्रतिबिम्बों में अरहन्त और सिद्ध भगवान के अनन्त चतुष्टयादि गुण नहीं हैं तथापि उन जिनेन्द्रों से सादृश्य होने के कारण और तदाकार स्थापना निक्षेप से वे अरहन्त और सिद्ध के गुण स्मरण कराने में परम निमित्त होते हैं। वह गुणों का स्मरण अनुरागात्मक होता है, अत: वह भक्त को ज्ञान और दर्शन में लगाता है और त्रे ज्ञान-दर्शन महान् संवर तथा निर्जरा करते हैं, अतः आप सब चैत्य अर्थात् अर्हन्त और सिद्धों के कृत्रिम एवं अकृत्रिम प्रतिबिम्बों की भावपूर्वक भक्ति करो। प्रश्न - वात्सल्य का क्या भाव है और इसके लिए गुरु का क्या निर्देश है ? उत्तर - यहाँ वात्सल्य का अभिप्राय प्रवचनवात्सल्य से है। इसके लिए गुरु कहते हैं कि हे मुनिगण! जिन ग्रन्थों में जीवादितत्त्वों का वर्णन है, जो जिनेन्द्र द्वारा कथित और संसारभीरु आचार्यों द्वारा लिखित हैं ऐसे ग्रन्थों का स्वाध्याय करने में आप सब सदा प्रयत्नशील रहना । सोना, हँसना, खेलना, आलस्य और लोकव्यवहार इन सबका परित्याग कर मात्र स्वाध्याय करो और जिनेन्द्रकथित आगम पर ही अपना वात्सल्य रखो । स्वाध्याय में रत रहने के लिए संकल्प करो कि मैं हास्य, क्रीड़ा तथा गल्पवाद का त्याग करता हूँ। मैं आलस्य का त्याग कर मुनिधर्म के योग्य क्रियाओं में ही उद्यत रहने का संकल्प करता हूँ। मैं निद्रा को अच्छी नहीं मानता, अतः उस पर विजय प्राप्त कर त्रैलोक्य में महान् ऐसे जिनागम पर हृदय से प्रफुल्लित होते हुए स्वाध्याय में रत होता हूँ, इत्यादि। परीषह सहन करने का उपदेश मा स्म धर्मधुरं त्याक्षुरभिभूताः परीषहैः । दुस्सहै: कण्टकैस्तीक्ष्णैर्गामेयक-वचो-मयैः॥३०६॥ अर्थ - भो मुनिगण ! आप दुःसह परीषहों से और ग्रामीणों द्वारा बोले गये तीक्ष्ण आक्रोश वचन रूपी काँटों से पराभूत होकर भी धर्म की धुरा के भार को मत त्यागो ॥३०६ ।। प्रश्न - परीषहों में आक्रोशक्चनजय परीषह का भी अन्तर्भाव हो जाता है, फिर उसे अलग से क्यों कहा गया है? उत्तर - क्षुधा-तृषा आदि परीषह सहन करना सहज है किन्तु हृदय को तीक्ष्ण काँटों सदृश विदीर्ण करनेवाले आक्रोश वचन सुनकर समता परिणाम रखना कठिन है, अत: आचार्य समझा रहे हैं कि अन्य परोषहों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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