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________________ मरणकण्डिका - ११३ कर्मों का संवर तथा निर्जरा करता है। यदि इस प्रकार की ज्ञानविनय न करोगे तो दोष सहित श्रुतज्ञान ज्ञानावरण कर्म के आस्रवादि का निमित्त होगा। जिनसे कर्म ग्रहण होता है ऐसी मानसिक, वाचनिक एवं कायिक क्रियाओं का अभाव होने पर या इन्हें रोकने पर चारित्र उत्पन्न होता है। तथा इट-अनिष्ट मर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दों में अनन्त-काल से जीव अभ्यस्त है। इनके निमित्त से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। बाह्याभ्यन्तर कारण पाकर कषायें भी उदय में आ जाती हैं: इनसे चारित्र का घात होता है । चारित्र का घात होते ही राग-द्वेष तथा मोह परिणाम होने लगते हैं, इन परिणामों से और मन, वचन, काय की अशुभ क्रियाओं से आत्मा में नबीन कर्मों का आगमन होता है। इसी प्रकार छह काय के जीव समूह को बाधा पहुंचाते हुए गमन करना, मिथ्यात्व और असंयम में प्रवृत्ति करानेवाले वचन बोलना, साक्षात् या परम्परा से जीवों को बाधा या उनका घात करनेवाला आहार-जल ग्रहण करना, बिना देखे - शोधे वस्तुओं को ग्रहण करना और रखना तथा बिना देखी-शोधी भूमि पर मलमूत्र त्याग करना, ये सब क्रियाएँ जीवपीड़ा कारक हैं, अतः कर्मग्रहण में निमित्त हैं। इन सबका त्याग कर गुप्ति एवं समिति रूप वर्तन करना चारित्रविनय है। आप सबको सदा इसी के लिए उद्यमशील रहना चाहिए क्योंकि जो अशुभक्रियाओं का त्याग नहीं कर सकते वे चारित्र भी धारण नहीं कर सकते । ऐसे जीव चिरकाल तक संसार-भ्रमण करते हैं। अनशन, अवमौदर्य आदि तपों से उत्पन्न होनेवाले परिश्रम को शान्ति पूर्वक सहन करना तपोविनय है। यदि तप करते समय आत्मा में संक्लेश परिणाम उत्पन्न हो जायेगा तो निर्जरा अल्प होगी और कर्मों का आस्रव महान् होगा, अत: कष्टसहिष्णु होने का उद्यम करते हुए तप करना चाहिए। उपचार विनय करनेवाला साधु विद्वानों द्वारा भी पूजित होता है और अविनयी साधु निन्दा का पात्र होता है। मानसिक, वाचनिक तथा कायिक इस प्रकार उपचार विनय तीन प्रकार की कही गई है। जो मन, वचन, काय से उपचार विनय नहीं करता वह मन से गुरु की अवज्ञा करता है। जो गुरु के आने पर उठकर खड़ा नहीं होता, उनके जाने पर पीछे नहीं जाता, हाथ नहीं जोड़ता, उनकी स्तुति एवं विज्ञप्ति नहीं करता, गुरु के सम्मुख आसन पर चढ़कर बैठता है, उनके आगे चलता है, निन्दा करता है, कठोर वचन बोलता है और गाली देता है वह साधु नीचगोत्र का बंध करता है। उस कर्म का उदय आने पर मातंग, चाण्डाल और धीवरादि नीच कुली में जन्म लेता है, कुत्ता एवं सूकर आदि निन्द्य पशु-पर्याय प्राप्त करता है। निन्दा करनेवाले मुनियों को गुरुओं से रत्नत्रय का लाभ नहीं होता। किन्तु जो मुनिजन नम्र स्वभावी होते हैं उन्हें गुरुजन प्रयत्न तथा प्रेरणा पूर्वक पढ़ाते हैं और उनका आदर करते हैं, अतः हे मुनिगण ! आप सब प्रयत्न पूर्वक दोषभरे अविनय का त्याग कर महान् गुणों की भण्डार स्वरूप विनय को अंगीकार करो अर्थात् विनयी बनो। प्रश्न - गुरु किसे कहते हैं और गुरु की शुश्रूषा के लिए आचार्यदेव ने क्या शिक्षा दी है ? उत्तर - आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी गुरु हैं। या जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रादि गुणों से बड़े हैं उन्हें गुरु कहते हैं। आचार्यदेव शिक्षा देते हैं कि हे मुनिगण! लाभ, कीर्ति एवं आदर आदि की अपेक्षा न करके आप गुरुओं की सेवा में सदैव तत्पर रहो। गुरु-शुश्रूषा से रत्नत्रय रूपी गुणों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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