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________________ मरणकण्डिका - ४५१ चिलातपुत्र ने विवाह-स्नान करती हुई सुभद्राका हरण कर लिया। जब यह बात श्रेणिक ने सुनी तब वह सेना लेकर उनके पीछे दौड़ा ! श्रेणिकसे अपनी रक्षा न होते देख चिलात ने उस कन्या को निर्दयतापूर्वक मार डाला और आप अपनी जान बचाकर वैभार पर्वत परसे भागा जा रहा था कि उसे वहाँ मुनियों का एक संघ दिखाई दिया और उसने उनसे दीक्षाकी याचना की। "तेरी आयु अब मात्र आठ दिन की रही है" ऐसा कहकर आचार्य ने उसे दीक्षा दे दी। दीक्षा लेकर चिलात मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। सेना सहित पीछा करने वाले श्रेणिक ने जब उन्हें इस अवस्थामें देखा तब वे बहुत आश्चर्यान्वित हुए और मुनिराजको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके राजगृह लौट आए। चिलातपुत्रने जिस कन्या को मारा था वह मरकर व्यंतर देवी हुई और "इसने मुझे निर्दयता पूर्वक मारा था" इस वैरका बदला लेने हेतु वह चील का रूप ले चिलात मुनिके सिर पर बैठ गई : उसने उसकी दोनों माँ नियम ली और सारे शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया। जिससे उनके घावों में बड़े-बड़े कीड़े पड़ गये। इसप्रकार आठ दिन तक वह देवी उन्हें अनिर्वचनीय वेदना पहुँचाती रही, किन्तु मन, इन्द्रियों और कषायों को वशमें करने वाले मुनिराज अपने ध्यानसे किंचित् भी विचलित नहीं हुए तथा समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति की। यमुनावक्र-निक्षिप्तः, शर-पूरित-विग्रहः। अध्यास्य वेदनां चण्डः, स्वार्थ शिश्राय धीर-धीः ॥१६३३॥ अर्थ - चण्ड या दण्ड या धन्य नामक महामुनिराज के शरीर को यमुनावक्र नामक राजा ने तीक्ष्ण बाणों से छेद कर भर दिया, फिर भी धैर्य-बुद्धिशाली वे मुनिराज उस असह्य वेदना को सहन करके उत्तमार्थ को प्राप्त हुए अर्थात् अन्त:कृत केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए।१६३३॥ * (धन्य) चंड या दंड नामके मुनिकी कथा * पूर्व विदेहक्षेत्रकी प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक अत्यन्त लोभी था । वह धान्यका दाय करते समय बैलों के मुख बँधवा दिया करता था जिससे वे अनाज न खा सकें और रसोई गृहमें रसोई करने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवा देता था ताकि उनके बच्चे दूध न पी पावें । एक समय राजा अशोक के मुखमें कोई भयंकर रोग हो गया। उसने उस रोगकी औषधि बनवाई। वह उसे पीने ही वाला था कि इतने में उसी रोगसे पीड़ित एक मुनिराज आहारके लिए इसी ओर आ निकले। राजा ने पथ्य सहित वह औषधि मुनिराज को पिला दी, जिससे उनका बारह वर्ष पुराना रोग ठीक हो गया। उस पुण्यके फलसे आगामी भवमें राजा अमलकपुरके राजा नंदीसेन और रानी नन्दमतीके धन्य नामका पुत्र हुआ। समय पाकर उसने राज्य-सिंहासन को सुशोभित किया। एक समय धन्य राजा भगवान नेमिनाथके समवशरणमें धर्मोपदेश सुननेके लिए गये थे। वहाँ उन्हें वैराग्य हो गया और वे वहीं दीक्षित हो गये। पूर्वभव में जो बच्चों और पशुओं के भोजनमें अन्तराय डाला था उस पापोदयसे प्रतिदिन गोचरी को जाते हुए भी उन्हें लगातार नौ माह तक आहारका लाभ नहीं हुआ अन्तिम दिन वे सौरीपुरके निकट यमुनाके किनारे ध्यानस्थ हो गये। उस दिन वहाँका राजा वनमें शिकार खेलने आया, पर दिनभरमें उसे कुछ भी हाथ न लगा। नगर को लौटते हुए राजा की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसका क्रोध उबल पड़ा कि इसने ही आज अपशकुन किया है। प्रतिशोध की भावना से राजा ने मुनि के शरीरको तीक्ष्ण बाणों से बींध डाला। सैकड़ों बाणों के एक साथ प्रहारसे मुनिराज का शरीर चलनी की सदृश जर्जरित हो गया और सारे शरीर से रक्त
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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