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________________ मरणकण्डिका - १८४ ऐसी अनेक प्रकार की परेशानियाँ हो जाती हैं। इस दृष्टान्त का यह प्रयोजन है कि जैसे प्रमाण युक्त एक-एक ग्रास ही प्रशंसनीय है उसी प्रकार एक निर्यापकाचार्य द्वारा एक क्षपक को संस्तरारूढ़ कराना ही जिनेन्द्राज्ञा के अनुकूल है। इस प्रकार एकसंग्रह अधिकार पूर्ण हुआ।।२२।। मध्ये गणस्य सर्वस्य, क्षपकं भाषते हितम्। इत्थं कारयितुं शुद्धां, विधिनालोचनां गणी ।।५४५ ।। अर्थ - सर्व संघ के मध्य में विधिपूर्वक शुद्ध आलोचना कराने हेतु निर्यापकाचार्य क्षपक को इस प्रकार का हितकारी उपदेश देते हैं ।।५४५॥ प्रश्न - समझाना तो क्षपक को है, फिर आचार्य सर्वसंघ के मध्य उपदेश क्यों देते हैं? उत्तर - सर्वसंघ के समक्ष क्षपक को उपदेश देने का यह प्रयोजन है कि सर्वसंघ को भी समाधि का स्वरूप, शुद्ध आलोचना का स्वरूप, आलोचना करने की विधि, आलोचना-आकम्पित आदि दस दोष, मनोयोग से वैयावृत्य करने की विधि एवं उसका फल तथा किस समय क्या प्रवृत्ति एवं क्या-क्या त्याग होना चाहिए, इत्यादि विषयों का विस्तृत ज्ञान संघ को भी हो जावे। २३. आलोचना अधिकार निर्यापकाचार्य का क्षपक को उपदेश समस्तं स्पर्श-चारित्रं, निरस्य सुख-शीलताम्। परीषह-चमू घोरां, सहमानो निराकुलः ।।५४६ ।। अर्थ - आचार्य क्षपक को दिव्य देशना देकर समझाते हैं कि - हे क्षपक ! अब तुम अपना सुखिया स्वभाव छोड़कर सम्पूर्ण चारित्र को धारण करो तथा घोर परीषहरूपी सेना के प्रहारों को सहन करते हुए निराकुल रहने का अभ्यास करो॥५४६।। प्रश्न - सुखिया स्वभाव छोड़ने का और निराकुल रहने का उपदेश क्यों दिया जा रहा है ? उत्तर - सुख-स्वभावी मुनि का चारित्र मन्द होता है । ऐसा मुनि वसतिका, संस्तर, आहार और उपकरण की शुद्धि नहीं करता | मनोज्ञ आहार में लम्पटी बन कर उद्गमादि दोषों का त्याग नहीं करता, सुन्दर एवं स्वच्छ उपकरणों में प्रीतियुक्त होने से उनके दोषों का परिहार नहीं करता, परीषहजन्य क्लेश सहन करने में असमर्थ होता हुआ जिस किसी प्रकार के दोषों से युक्त आहार-पान एवं वसतिका आदि को ग्रहण कर लेता है। आलस्यप्रिय होने से छह आवश्यकों को समय पर और मर्यादित समय तक नहीं करता, दिन को सोता है, तपजन्य क्लेश सहन करने में निरुत्साही होता है, गप्प-वार्ता करने में उत्साही तथा स्वाध्याय तप में निरुत्साही होता है और शरीर को सुख देनेवाले साधनों के लिए आकुल-व्याकुल रहता है। आकुलता ही दुख का लक्षण है, अत: आचार्यदेव सुखस्वभाव छोड़ने का और निराकुल रहने का उपदेश दे रहे हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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