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________________ मरणकण्डिका - १८३ अर्थ - संस्तर पर स्थित होकर मात्र एक क्षपक जिनाज्ञानुसार तपरूपी अग्नि में शरीर का दान करता है अर्थात् यावज्जीवन आहार का त्याग कर शरीर की पूर्णाहुति तपाग्नि में करता है, तथा अन्य कोई एक यति विविध प्रकार से उग्र-उग्र तपश्चरण द्वारा शरीर को कृश करता है॥५४२ ।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है ? उत्तर - इसका भाव यह है कि एक संघ में एक साथ दो मुनि संस्तर ग्रहण कर आहार का यावज्जीवन त्याग न करें। एक क्षपक आहार का त्याग कर संस्तराख हो और कोई दूसरा उग्र का अपने शरीर को कृश करने का उद्यम करे। यजमान-क्षतेजैनैस्तृतीयो नानुमन्यते । द्वि-त्रेषु श्रित-पात्रेषु, समाधिीयते तराम्॥५४३ ।। अर्थ - सल्लेखनारत मुनि की हानि होती है, अत: जैनाचार्य तीसरे क्षपक को ग्रहण करने की आज्ञा नहीं देते हैं। यदि एक संघ में एक निर्यापकाचार्य के निर्देशन में एक साथ दो-तीन मुनियों को संस्तरारूद कर लेते हैं तो उनकी समाधि अतिशयरूप से नष्ट हो जाती है ॥५४३ ।। प्रश्न - जैनाचार्यों ने एक साथ दो-तीन क्षपकों को संस्तरारूढ़ होने की आज्ञा क्यों नहीं दी? उत्तर - एक आचार्य के निर्देशन में एक साथ दो-तीन साधुओं को संस्तरारूढ़ कर लेने पर उन सभी के चित्त का समाधान करना, धर्मोपदेश द्वारा घबराये हुए मन को शान्त करना, शरीरमर्दन करना, मल-मूत्रादि के त्याग के समय सँभालना और भी अन्य-अन्य प्रकार से वैयावृत्य करना, एक निर्यापकाचार्य कैसे सम्पन्न कर सकेगा? तथा संघस्थ परिचारक मुनि भी सबकी वैयावृत्य के कार्यों में शान्तिपूर्वक संलग्न नहीं हो सकते । सबके सर्व कार्य सम्पन्न न हो सकने के कारण सभी को संक्लेश होगा जो समाधि को नष्ट करने का साधन है, अतः एक समय में एक आचार्य एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ करावे। रथोद्धता छन्द एकमेव विधिना यतिं ततः स्वीकरोति स्वसहाय-सम्मतम् । गृह्यते हि कवल: स एव यः पण्डितेन वदने प्रशस्यते ॥५४४ ।। इति एकसंग्रहः ॥२२॥ अर्थ - इस प्रकार जिनाज्ञा मान कर एक निर्यापक एक ही क्षपक को विधिपूर्वक अपने स्व सहाय की सम्मति देकर स्वीकार करता है। क्योंकि मुख में वही ग्रास ग्रहण किया जाता है जो विद्वानों के द्वारा प्रशंसनीय माना जाता है ।।५४४॥ प्रश्न - मुख में बड़ा ग्रास ग्रहण करने से क्या हानि है और इस दृष्टान्त का क्या प्रयोजन है? उत्तर - मुख में उतना बड़ा ही ग्रास लिया जाता है जो सुखपूर्वक चबाकर गले से उतारा जा सके और ऐसा ग्रास लेना ही प्रशंसा के योग्य होता है। यदि बड़ा ग्रास या एक साथ दो-तीन ग्रास एक साथ मुख में भर लिये जाँय तो उसका आना, चबा नहीं सकना, आँखों से पानी बहना एवं ग्रास का मुख से बाहर निकल जाना,
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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