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________________ मरणकण्डिका प्रश्न- सम्यग्दर्शन की निर्मलता में भगवान के अन्य कल्याणकों की कौन-कौन सी अतिशयता कारण पड़ती है? उत्तर - जन्माभिषेक के बाद इन्द्र की आज्ञानुसार कुबेर महाआदर के साथ योग्य और दिव्य ऐसे उबटन, वस्त्र, भोजनपान, वाहन एवं अलंकार आदि वस्तुओं रूपी सम्पदाएँ प्रस्तुत करते हैं। मनोनुकूल क्रीड़ा करने वाले देवकुमारों का समूह भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा करता है। पूर्व पुण्योदय से कितने ही जिनदेव चक्रवर्तित्व, कितने ही महामण्डलीक और कितने ही मण्डलीक आदि राजपदों की सम्पदाओं का उपभोग करते हैं। - - ६२ तीर्थंकर नाम कर्मोदय से और चारित्र मोहनीय की क्षयोपशमता की प्रकर्षता से वे अनादि से आत्मा के साथ बँधे हुए स्वयं के और अन्य जीवों के कर्मों को नष्ट करने हेतु कटिबद्ध हो जाते हैं। उस समय वे जिनदेव विचार करते हैं कि यह मोह की कैसी महत्ता है कि दुरन्त संसार समुद्र के दुखरूपी भँवरों को प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले हम जैसों को भी आरम्भ-परिग्रह में फँसाता है। हमने चिरकाल तक अहमिन्द्रों के सुख का भोग किया है, जो अणिमादि आठ महाऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं, आपत्ति के अविषय हैं, अभिलाषाओं से दूर हैं, अकल्पनीय हैं, नागोर हैं, अन्य क्षेत्रों की क्या, कृशम्ग्रबुद्धि इन्द्र को भी वह सुख प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन्द्र भी उस सुख को जानने में असमर्थ है, अपराधीन है, जिसमें जीवन पर्यन्त न्यूनता नहीं आती ऐसा अहमिन्द्रपद का सुख चिरकाल तक भोग चुकने पर भी मनुष्य की इस क्षणिक भोगसम्पदा में हमारी कैसी उत्कण्ठा बन रही है ? मनुष्यलोक की यह भोग-सम्पदा दुष्टजन की मैत्री के सदृश दुखों की परम्परा उत्पन्न करनेवाली है, चंचल है, पराधीन है, कुकवि की रचना सदृश सारहीन है, अनेक बाधाओं से युक्त है, इसे हमने अनन्त बार भोगा है, किन्तु तृमि कभी नहीं हुई, इत्यादि । उसी समय शंख सदृश श्वेतवस्त्रधारी लौकान्तिक देवों ने अपने अवधि चक्षु से देखा कि जिनदेव स्वयं को और दूसरे भव्यजीवों को संसार समुद्र से पार उतारने के लिए एकदम तत्पर हैं, भगवान ने अनेक भव्य जीवों पर अनुग्रह करनेवाले महत् कार्य पूर्ण करने का बीड़ा उठाया है। हमें भी इसकी अनुमोदना करनी चाहिए, क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा न करना भी स्वार्थ का घातक है। तत्काल आकर उन्होंने भगवान के वैराग्य की स्तुति की। उसी समय इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। सिंहासन से उठ एवं सात पद आगे जाकर उन्होंने उसी दिशा में समीचीन धर्मतीर्थ के प्रवर्तन करने में उद्यत, शरणागत भव्यजीवों की रक्षा करने वाले एवं अलौकिक नेत्रों से विशिष्ट जिनदेव को नमस्कार किया। पश्चात् भेरी बजवाई और नाना प्रकार के छत्र, शस्त्र, वस्त्राभूषण और वाहनों के साथ वहाँ से चले । अन्य इन्द्रों और राजाओं के साथ सौधर्मेन्द्र ने राजमहल के द्वार पर पहुँच चमरछत्र आदि इन्द्रत्व के सब चिह्नों को दूर कर द्वारपाल से अपने आने का समाचार निवेदन कराया। आज्ञा मिलने पर इन्द्र तत्काल धर्मचक्र के प्रवर्तक जिनदेव के समीप पहुँचा। उसने अत्यन्त आदरपूर्वक उन्हें नमस्कार कर निवेदन किया- भगवन् ! अच्युतेन्द्र आदि समस्त इन्द्रगण आपके निष्क्रमण कल्याणक की परिचर्या करने के अभिलाषी हैं। हे प्रभो ! हम देवगुण मुक्ति का मार्ग जानते हैं और अनन्तसुख का अनुभव करने के लिए आतुर हैं तथा इन्द्रियसुख को खेदरूप जान कर उसकी उपेक्षा भी करते हैं किन्तु संयम का घात करनेवाले कर्म का क्षयोपशम हमें प्राप्त नहीं है, अतः हम स्वयं भी चारित्र में प्रवृत्त नहीं होते और न दूसरों को ही प्रवृत्त करना पसन्द
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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