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________________ मरणकण्डिका - ६१ ६. अनियत-विहार अधिकार अनियत विहार के गुण दृष्टिशुद्धि-स्थिरीकारी, भावना शास्त्र-कौशलम् । क्षेत्रस्य मार्गणा साधोर्गुणा नित्य-विहारिणः ॥१५१ ॥ अर्थ - सम्यक्त्व की शुद्धि, स्थितीकरण, भावना, शास्त्र में अतिशय निपुणता और क्षेत्र का अन्वेषण, साधु के अनियत विहार मे ये गुण हैं ।।१५१ ॥ ___ दर्शन शुद्धि पद का निरूपण विशुद्धं दर्शनं साधोर्जायते पश्यतोऽर्हताम्। जन्म-निष्क्रमण-ज्ञान-तीर्थ-चिह्न-निषिद्धिकाः ।।१५२॥ अर्थ - विहार करते समय जिनेन्द्रदेव के जन्मस्थान, दीक्षास्थान, केवलज्ञान की उत्पत्ति के स्थान, निर्वाण सम्बन्धी तीर्थस्थान, समवसरण के चिह्न स्वरूप मानस्तम्भ और निषीधिका स्थान देखने से साधु के सम्यग्दर्शन में निर्मलता आ जाती है।।१५२ ।। प्रश्न - जन्मकल्याणक की ऐसी क्या अतिशयता है, जिस देखकर सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है? उत्तर - जब तीर्थंकर जन्म लेते हैं तब अनियत विहार करने वाले यतिजन तथा तीन ज्ञान के धारी स्वर्ग से अवतरित होने वाले देव विशिष्ट पूजा को प्राप्त जिनदेव का जन्माभिषेक कल्याणक देखते हैं। वह जन्मोत्सव लोक रूपी घर में छिपे हुए अन्धकार के फैलाव को नष्ट कर देता है। अमृतपान के सदृश समस्त प्राणियों को आरोग्य लाभ देता है। देवांगनाओं के नृत्य के सदृश समस्त जगत् को आनन्दमयी है। यह महोत्सव प्रिय वचन के सदृश मन को प्रफुल्लित करता है। प्रशस्त पुण्यकर्म के सदृश अगणित पुण्य को देने वाला है। लक्ष्मी अपनी परिचारिकाओं के साथ इस महोत्सव को साश्चर्य देखती है। गुह्यक जाति के देव आकाश से पुष्पवृष्टि करते हैं। सतत नगारों और शंखों की ध्वनि होती है। इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है, इन्द्र भेरो बजवाता है जिसके शब्द सुनकर इन्द्रादि प्रमुख और सामानिक आदि सर्व देवगण सौधर्मेन्द्र के पास आ जाते हैं। वैक्रियिक शरीर धारण कर आकाश मार्ग से जाते हुए गृहांगण में प्रवेश करते हैं। इन्द्राणी राजभवन में जाकर बालक प्रभु को लाती है। इन्द्र उन्हें लेने के लिए अपने दोनों हाथ पसारता है, हजार नेत्रों से देखते हुए भी वह तृप्त नहीं होता। इन्द्रों का समूह शुभ चमर दोरता है, छत्र लगाता है । इन्द्रनील मणियों से रचे सोपानों पर पैर रखकर देवों का समूह सुमेरु पर्वत की ओर आकाश मार्ग से गमन करता है। उस समय द्वारपाल देव क्षुद्र देवगणों को वहाँ से दूर करते हैं। हजारों आत्मरक्षक देव रक्षा का कार्य तत्परता से करते हैं। इन्द्र सहित सब देव सुमेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। भगवान को सिंहासन पर विराजमान कर देवकुमारों की परम्परा से लाये गये क्षीरसमुद्र के जल से भरे रत्नमयी कलशों से जिन भगवान का अभिषेक करते हैं। इन्द्राणी प्रभु के अनुरूप उनका शृंगार करती है। इन्द्र के सहस्रों वैतालिकदेव अर्थात् भाट देव प्रभु की स्तुति करते हैं। जन्मोत्सव के इस शुभावसर पर इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है। ऐसे जन्माभिषेक कल्याणक को जो-जो देखते हैं उनका सम्यग्दर्शन अति निर्मल हो जाता है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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