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________________ मरणकण्डिका - ६० अर्थ- जैसे दुष्ट अश्व को मार्ग पर चलाना और अति स्निग्ध बीलन मत्स्य को पकड़ना शक्य नहीं है वैसे हो मन को वश में करना शक्य नहीं है ।। १४५ ।। मन के वशीभूत होनेवाले और मन को वशीभूत करने वालों का फल यस्य दुःख - सहस्राणि, भजन्तं वशवर्तिनः । संसार सागरे घोरे, बंभ्रम्यन्ते शरीरिणः ।। १४६ ।। अर्थ - इस मन के वशीभूत होनेवाले ये संसारी प्राणी सहस्रों दुख सहते हैं और घोर संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं ॥ १४६ ॥ - संसार- कारिणो दोषा, राग-द्वेष-मदादयः । जीवानां यस्य रोधेन, नश्यन्ति क्षण - मात्रतः ।। १४७ ।। तद् दुष्टं मानसं येन, निवार्याशुभ-वृत्तित: । प्रवृत्त - शुभ संकल्पं, स्वाध्याये क्रियते स्थिरम् ॥ १४८ ॥ अर्थ - उपर्युक्त उस दुष्ट मन को वशीभूत कर लेने से जीवों के राग, द्वेष एवं मद आदि संसार के कारणभूत समस्त दोष क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं, उस दुष्ट मन को अशुभ प्रवृत्तियों से रोक कर शुभ संकल्पों में प्रवृत्त कर स्वाध्याय में स्थिर किया जाता है | १४७-१४८ ॥ प्रश्न स्वाध्याय में मन कैसे स्थिर होता है और उसका क्या फल है? उत्तर- दुष्ट मन को विकारी भावों से हटा कर रत्नत्रय में स्थापित करने से मन स्वाध्याय में अर्थात् समीचीन तत्त्वचिन्तन में स्थिर हो जाता है और स्वाध्याय' मन स्थिर हो जाने से साधु के समता भाव जाग्रत हो जाते हैं। मन को स्थिर करने का उपाय अभितो धावमानं तद्विचारेण निवर्त्यते । निगृह्य क्रियते चित्तं, दुर्वृत्त इव लज्जितम् ॥१४९ ।। अवशं क्रियते वश्यं येन दास इव व्रतम् । श्रामण्यं निश्चलं तस्य, सर्वदाप्यवतिष्ठते ॥ १५० ॥ इति समाधिः । अर्थ - जिस प्रकार दुराचारी कुपुत्र को दुराचरण के फलप्रदर्शन द्वारा लज्जित कर दुराचरण से विमुख किया जाता है, उसी प्रकार चारों ओर दौड़ते हुए मन को तत्त्वविचार द्वारा अपनी आत्मा की ओर लौटाना चाहिए ॥ १४९ ॥ जैसे अवश हुए स्वेच्छाचारी दास को उपायपूर्वक वशीभूत कर स्थिर किया जाता है, उसी प्रकार साधु अपने अवश मन को वशीभूत कर लेता है जिससे उसका श्रामण्य अर्थात् समता भाव निश्चल हुआ सदैव अवस्थित रहता है || १५० ।। इस प्रकार मन को वशीभूत एवं श्रामण्य को स्थिर करनेवाला समाधि अधिकार पूर्ण हुआ || ५ ||
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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