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________________ मरणकण्डिका - १५१ विश्राम्यासा सत्यमुतुकामः, श्रान्त: स्थित्वा वासरं तं द्वितीये। तत्राचार्य ढोकते वा तृतीये, न प्रारब्धं साधवो विस्मरन्ति ॥४३३ ।। ॥ इति मार्गणा सूत्रम् ॥१६॥ अर्थ - मार्ग के श्रम से थका हुआ आगत मुनि प्रथम दिन तो विश्राम करता है। पश्चात् दूसरे या तीसरे दिन अपनी शल्य को दूर करने के लिए वहाँ के आचार्य के समीप उपस्थित होता है। ठीक ही है, क्योंकि साधुजन प्रारम्भ किये हुए कार्य को भूलते नहीं हैं अर्थात् जिस कार्य के लिए आये हैं उसका विस्मरण नहीं होने देते ॥४३३॥ इस प्रकार मार्गणा सूत्र पूर्ण हुआ।।१६।। सुस्थितादि अधिकार १७. सुस्थित उपसम्पदा निर्यापकाचार्य के गुण आचारी सूरिराधारी, व्यवहारी प्रकारकः । आयापश्यदृगुत्पीद्धि, सुखकार्यपरिसवः ॥४३४ ।। अर्थ - आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रकारक अर्थात् कर्ता, आयापायदृग्, उत्पीड़क, सुखकारी और अपरिस्रावी ये आठ गुण निर्यापकाचार्य में होने चाहिए ||४३४ ।। एभिर्निर्यापकः सूरिर्गुणैरष्टभिरन्वितः । दातुमाराधनामीशः, पृथु-कीर्तिरुपेयुषे ॥४३५॥ अर्थ - निर्यापक आचार्य इन आठ गुणों से समन्वित होता है, वह विशाल कीर्ति युक्त होता है और आगत साधु को आराधना अर्थात् समाधि देने में समर्थ होता है ।।४३५ ।। आचारवत्त्वगुण का विवेचन आचारी स मतः सूरिरतिचार-निराकृतम् । चर्यते चार्यते येन, पञ्चाचारोऽनुमन्यते ॥४३६ ।। अर्थ - जो निरतिचार पंचाचार का स्वयं पालन करता है और दूसरों से भी पालन कराता है वह आचार्य आचारवान् कहा जाता है ।।४३६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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