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________________ मरणकण्डिका - ४६३ भी-शोक-मान-मात्सर्य-रागद्वेष-मदादिभिः । तप्यमानो गतो दुःखं, पावकैरिव चिन्तय ॥१६७३ ।। अर्थ - आजीविका आदि की विकट समस्याओं में, परिवार के पालन-पोषण आदि में एवं धन-संरक्षण आदि में तुमने अनेक प्रकार के भय, शोक, अपमान, असहनशीलता, राग, द्वेष एवं मदादि से अग्नि में संतप्त हुए के समान जो दुख भोगे हैं, हे क्षपक ! तुम उन सबका चिन्तन करो ।।१६७३ ।। स्तेनाग्नि-जल-दायाद-पार्थिवैर्धन-विप्लवे। कशा-दण्डादिभिर्घाते, हस्त-पादादि-मर्दने ॥१६७४ ।। अर्थ - मनुष्य पर्याय में कष्ट पूर्वक संचित धन चुरा लिये जाने पर, दुकान-मकानादि में अग्नि लग जाने से, जलप्रवाह में बह जाने से साझेदार, भाई-बन्धु या राजा आदि के द्वारा धन नष्ट या हरण कर लेने से, किंकर अवस्था में कोड़ों की मार से और हाथ-पैर आदि अवयवों का मर्दन किये जाने से तुमने असह्य दुख भोगे हैं ||१६७४।। मूर्ध्नि प्रज्वालने वह्नर्भक्त-पानादि-रोधने। शृङ्खले रज्जुभिः काष्र्हस्त-पादादि-बन्धने ॥१६७५ ॥ अर्थ - मस्तक पर अग्नि जला देने से, भोजन-पान रोक देने से, सांकल, रस्सी या काष्ठ आदि द्वारा हाथ-पैर बाँध देने से अथवा पीछे हाथ करके बाँध देने से तुमने घोर कष्ट सहे हैं ।।१६७५ ॥ पराभवे तिरस्कारे, वृक्षशाखावलम्बने। व्याघ्र-सर्प-विषाराति-रोगादिभ्यो विपर्यये॥१६७६ ।। अर्थ - शत्रुओं द्वारा या भाई-बन्धुओं द्वारा पराभव हो जाने से, तिरस्कार हो जाने से, गर्दन में रस्सी बाँध कर वृक्ष-शाखा पर लटका दिये जाने से, व्याघ्र से, सर्प से, विषादि से, शत्रुओं से एवं रोगादि के निमित्त से तुमने असह्य दुखों का अनुभव किया है।।१६७६ ॥ जिह्वा-काष्ठ-नासाक्षि-पाणि-पादादि-कर्तने । शीत-वातातपोदन्या-बुभुक्षादि-कदर्थने ।।१६७७ ।। अर्थ - जिह्वा उपाड़ लेने से, कर्ण, ओष्ठ एवं नाक काट लेने से, नेत्र फोड़ देने से एवं हाथ-पैर काट देने से घोर दुख सहे। शीत अर्थात् ठण्ड, गरमी, वायु एवं भूख-प्यासादि के भी महान् कष्ट बार-बार भोगे हैं॥१६७७॥ शारीरं मानसं दुःखं, साधो ! प्राप्तमनेकशः। यहुःसहं त्वया नृत्वे, तत्वं चिन्तय यत्नतः ॥१६७८ ।। अर्थ - हे साधो ! मनुष्य पर्याय में भी शारीरिक एवं मानसिक अनेक प्रकार के दुःसह दुख तुमने अनेक बार भोगे हैं, इस समय तुम उन घोर दुखों का प्रयत्नपूर्वक तात्त्विक चिन्तन करो ।।१६७८ ।। गर्हितं दुरितकर्म-निर्मितं मानुषीं, गतिमुपेयुषा त्वया॥ दुःसहं चिरमवाप्तमूर्जितं, किं न चिन्तयसि तत्त्वतोऽसुखम् ।।१६७९ ॥ इति नृ-गतिः।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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