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________________ मरणकण्डिका - ४६४ . अर्थ - मनुष्यगति प्राप्त होने पर तुमने गर्हित पाप कर्म किये, उससे अशुभ पापानब कर पापकर्म का बन्ध किया और उसके उदय में दुःसह एवं भयंकर दुख भोगे हैं। भो क्षपक ! तुम तत्त्वदृष्टि से उन दुखों का चिन्तन क्यों नहीं करते हो ? हे धीर ! तुम्हें मनुष्यगति सम्बन्धी सभी दुखों का चिन्तन अवश्य ही करना चाहिए जिससे वर्तमान में समाधिजन्य ये किंचित् कष्ट सहज ही सहन हो जायेंगे ।।१६७९ ।। इस प्रकार मनुष्यगति के दुखों का वर्णन समाप्त हुआ। देवगतिजन्य दुख देवत्वे मानसं दुःखं, घोरं कायिकतोऽङ्गिनः। पराधीनस्य बाह्यत्वं, नीयमानस्य जायते॥१६८०।। अर्थ - देवगति में यदि आभियोग्य जाति का देव हुआ तो पराधीन होकर इन्द्रादि देवों द्वारा वाहन बनाया गया, सवारी का रूप धारण कर अन्य ऋद्धिधारी देवों को यहाँ-वहाँ लाते-ले जाते समय जो मानसिक दुख होता था रह शारीरिक दुखों मे भाधिक होना था ।।१६८०॥ गुर्षी दृष्ट्वामरो मानी, महर्धिक-सुर-श्रियम्। तदा स श्रयते दुःखं, मान-भङ्गेन मानसम् ।।१६८१ ।। अर्थ - अभिमानी देव हुआ तो अन्य महर्धिक देवों को देखकर मानभंग की कल्पना से जो घोर मानसिक दुख भोगा था, उसका स्मरण करो।।१६८१॥ प्रश्न - महर्धिक देवों को देखकर मानभंग की कल्पना क्यों होती है ? उत्तर - जिन किल्विषादि नीच देवों के ऋद्धियाँ और वैभव कम तथा अभिमान अधिक होता है वे महर्धिक देवों को देख-देख कर स्वभावतः विचार करते रहते हैं कि देखो ! ये भी देव हैं और मैं भी देव हूँ किन्तु ये कितने ऋद्धिसम्पन्न हैं, मुझे तो इनके समक्ष नीचा ही देखना पड़ता है। अहो ! मैंने पूर्वभव में चारित्र का या रत्नत्रय का निर्दोष पालन नहीं किया जिसके फलस्वरूप देवों में उत्पन्न होकर भी मुझे अन्य देवों की दासता स्वीकार करनी पड़ रही है ? इस प्रकार के विचार उन्हें मानहानिजन्य असह्य भानसिक पीड़ा देते हैं। सुन्दरास्त्रिदिव-वासि-सुन्दरीर्मुञ्चतो विबुधभोग-सम्पदः । ध्यायतो भवति दुःखमुल्वणं, गर्भवास-वसतिं च निन्दिताम् ।।१६८२ ।। अर्थ - माला आदि मुरझा जाने से जब मृत्यु के पाश गले में आ पड़ने की सूचना प्राप्त हो जाती है तब उसे स्वर्ग का निवास, वहाँ के मनोहर और दिव्यभोग, विपुल-अनुपम सम्पदायें, दिव्य वस्त्रालंकार, दिव्य शरीर, अनुपम सुन्दर देवांगनाएँ एवं अप्सराएँ छोड़ने का तथा मल से भरे अतिशय निन्ध गर्भवास में नौ-दस मास पर्यन्त रहने का ध्यान आते ही अतिशय और अनिर्वचनीय मानसिक दुख होता है ।।१६८२ ।। पूर्वभवार्जित-दुष्कृत-जातं, उत्पन्न त्रिदशत्वमशस्तम् । दुःखमसयमपारमवाप्तं, चिन्तय भद्र विमुच्य विषादम् ॥१६८३॥ इति देवगतिः।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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