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________________ मरणकण्डिका -५३९ रहते हैं जिससे अशुभकर्म का बन्ध अधिक होता है जिसके फलस्वरूप जीव विरूप होते हैं। प्रशस्त रूप नामकर्म के बन्ध का कारण दयाई परिणाम हैं जो अल्य जीवों में पाये जाते हैं अतः रूप की दुर्लभता है। दीर्घायु की दुर्लभता - अविवेकपूर्ण आरम्भ सारम्भ से एवं कषाय से प्रायः अज्ञ प्राणी जीवों को मारते रहते हैं एवं उनकी आयु का घात करते रहते हैं अत: अल्पायु जीवों की बहुलता है। कदाचित् ही अहिंसा व्रत पालन करते हैं अतः दीर्घायु की प्राप्ति दुर्लभ है। नीरोगता की दुर्लभता - अज्ञ प्राणी सतत परजीवों को संताप देने में तत्पर एवं उत्साहित रहते हैं अतः सदैव रोगी रहते हैं। पर-सन्ताप को दूर करने, वैयावृत्त्य करने और गुरुजनों की सेवा आदि करने के परिणाम होना दुर्लभ है अत: नीरोगता की प्राप्ति दुर्लभ है। समीचीन बुद्धि की दुर्लभता - समीचीन ज्ञान एवं ज्ञानियों को दूषण लगाने से, उनसे डाह तथा मात्सर्य करने से, उनके ज्ञानाराधन में विघ्न डालने से, उनकी आसादना करने से, आचार्यों की वाणी का विपरीत प्रचार-प्रसार करने से तथा चक्षुआदि इन्द्रियों का घात कर देने से मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का जाड्य कर्मबन्ध होता है। जिसका उदय होने पर यह जीव अतिमन्दबुद्धि वाला होता है । लक्षावधिसे भी अधिक जन्मों के बाद जब कभी इस जीव के मति-श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम होने योग्य शुभ परिणाम होते हैं तब कदाचित् विवेक को उत्पन्न करने वाली बुद्धि उत्पन्न होती है अत: उत्तम बुद्धि की प्राप्ति अतिदुर्लभ है। धर्मश्रवण की दुर्लभता - करोड़ों, असंख्य भवों के बाद विवेकपूर्ण बुद्धि प्राप्त हो जाने पर भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। कारण कि रागद्वेष से रहित, सच्चे ज्ञान के प्रकाशन द्वारा दुर्भेद्य मोहान्धकार का उन्मूलन करने वाले और सब जीवों पर दया करने वाले मुनिजनों की प्रामि दुर्लभ है। यदि प्राप्ति हो भी जाय तो तीव्र मिथ्यात्व के उदय से या गुणीजनों में द्वेषभाव उत्पन्न हो जाने से या मिथ्याज्ञान की प्राप्ति से या दुराग्रह से या 'मैंने जो जाना है वही सत्य है' ऐसी धारणा बन जाने से या आलस्य से या ये मुनिराज स्व-परोद्धार में दक्ष हैं ऐसा परिज्ञान न होने से अथवा अन्य भी ऐसे अनेक कारणों से मुनिजनों के समीप जाने से धर्म-श्रवण से वंचित रहना पड़ता है। कदाचित् मुनिजनों की सभा में पहुँच ही गये तो निद्रा के झोंके आ जाने से, किसी लेनदेन की विशेष स्मृति आ जाने से, गप्पाष्टक या नि:सार वार्तालाप में उपयोग लग जाने से, मूखों के वचन सुनने से अथवा विनययुक्त व्यवहार न करने से भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। पापकर्म का उपशम होना, उपदेश देने वाले मुनिजनों का समागम, विनयपूर्वक प्रश्न करने की दक्षता एवं प्रशस्त वचन बोलने वाले गुरु का समागम विशिष्ट पुण्योदय में होता है इसलिए भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। धर्मग्रहण की दुर्लभता - यदि कदाचित् उपयोगपूर्वक धर्म सुन भी लिया तो उसको ग्रहण अर्थात् धारण कर लेना दुर्लभ है क्योंकि श्रुतज्ञानावरणकर्म के उदय से उपदेश का अभिप्राय समझने की पात्रता नहीं होना एवं गुरुमुख से पूर्व में कभी न सुना हुआ उपदेश सुनने एवं समझ लेने पर भी उसमें मन की एकाग्रता दुष्कर होने से धारणा में नहीं रह पाने से भी ग्रहण दुर्लभ है। श्रुतज्ञान का क्षयोपशम प्राप्त होना, जीवादि तत्त्वों का सूक्ष्म विवेचन ग्रहण कर पाना, मन का लगना तथा वक्ता का वचन सौष्ठव ये सभी दुर्लभ होने से भी धर्मज्ञान का ग्रहण दुर्लभ है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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