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________________ मरणकण्डिका - ५३८ मनुष्य पर्थाय की दुर्लभता का कारण प्राचुर्यं गर्हय-भावानां, महत्त्वं जगतोऽङ्गिनाम् । विधत्ते योनि-बाहुल्यं, मानुष्यं जन्म-दुर्लभम् ।।१९६०॥ अर्थ - संसार में जीवों के अशुभ भावों की अत्यधिक प्रचुरता है, इन अशुभ भावों से कुयोनियों की प्राप्ति होती है अत: इन कुयोनियों के मध्य मनुष्य पर्याय की प्राप्ति अतिदुर्लभ है ।।१९६० ।। प्रश्न - मनुष्य-पर्याय की दुर्लभता किसकी अपेक्षा कही गई है ? उत्तर - क्षेत्र की अपेक्षा - इस लोक का प्रमाण तीन सौ तैंतालीस घन राजू है। इस प्रमाण वाले सर्वलोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि तियेच जीव तिलमें तेल सदृश सर्वत्र भरे हैं। लोक के मध्य में एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची सनाली है। उसमें विकलेन्द्रियादि जीवों की बहुलता होती है। इसी में नारकियों का क्षेत्र छह राजू और देवों का क्षेत्र सात राजू है किन्तु मनुष्यों का क्षेत्र अढ़ाई द्वीप अर्थात् मात्र पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। संख्या की अपेक्षा - तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त हैं। विकलेन्द्रिय, असंज्ञी एवं संज्ञी जीव असंख्यातासख्यात हैं। नारकी असंख्यात हैं, देव भी असंख्यात हैं किन्तु मनुष्य मात्र संख्यात हैं, अत: मनुष्यपर्याय की प्राप्ति अतिदुर्लभ है। अन्य बस्तुओं की भी दुर्लभता देशो जाति: कुल रूपमायुर्नीरोगता मतिः। श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा, नृत्वे सत्यपि दुर्लभम् ।।१९६१॥ अर्ध - दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त होने पर भी जिनधर्मयुक्त देश, जाति, कुल, रूप, आयु, नीरोगता, बुद्धि, धर्मश्रवण, ग्रहण एवं श्रद्धा ये उत्तरोत्तर अतिदुर्लभ हैं ॥१९६१ ॥ प्रश्न - देश, कुल एवं जाति आदि की उत्तरोत्तर दुर्लभता क्यों है? उत्तर - देश की दुर्लभता - पुण्योदय से मनुष्य पर्याय प्राप्त हो जाने पर भी जिनोपदिष्ट जिनधर्म में दक्ष मनुष्यों से भरपूर देश प्राप्त होना अतिदुर्लभ है, क्योंकि पाँचम्लेच्छखण्ड क्रिया धर्म से रहित हैं। अढ़ाई द्वीप में भी छियानवे अन्तर्वीप और शक, यवन, किरात, बर्बर, पारसोक एवं सिंहलादि अनेक देश धर्मज्ञ मनुष्यों से रहित हैं। जाति और कुल की दुर्लभता - नीच कुल और नीच जाति की सर्वत्र बहुलता है, क्योंकि अज्ञ प्राणी पर निन्दा, आत्मप्रशंसा एवं गुण और गुणीजनों की निन्दा करके नीच गोत्र का बन्ध किया करते हैं। गुणों में और गुणीजनों में अनुराग तथा अपने कुल-जाति की निरभिमानता कम देखी जाती है अत: उत्तम कुल-जाति की प्राप्ति दुर्लभ है। ___रूप की दुर्लभता - सुन्दर रूप मिल्ना भी दुर्लभ है। कारण कि चारित्र-मोहनीय कर्मोदय से अज्ञ प्राणी छह काय को बाधा पहुँचाने वाले कार्यों में निरन्तर लगे रहते हैं, उनके रूपादि की शोभा विनष्ट करते
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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