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________________ मरणकण्डिका - २५३ को प्रसन्नता हो और उसमें संवेग भाव की जाग्रति हो, मृत्युकाल में उसी एक पद का बार-बार चिन्तन करना चाहिए ।।८०८॥ जिनपति-वचनं भव-भय-मथनं, शशिकर-धवलं कृत-बुध-कमलम् । धृतमिति हृदये हत-मल-निचये, वितरति कुशलं विदलति कलिलम् ।।८०९॥ इति ज्ञानम्। अर्थ - जिनोपदिष्ट वचन संसार के भय का मथन करने वाले हैं, चन्द्रमा की किरणों के सदृश धवल हैं, बुद्धिमानरूपी कमलों को विकसित करने वाले हैं। ये वचन पाप का नाश करते हैं और कुशलं अर्थात् पुण्य का वर्धन करते हैं अतः राग-द्वेष, मात्सर्य एवं अहंकार आदि मल रहित हृदयवाले हे क्षपक! तुम इन पवित्र वचनों को अपने हृदय में धारण करो॥८०९॥ इस प्रकार ज्ञानाभ्यास प्रकरण पूर्ण हुआ। इस प्रकार श्लोक संख्या ७५४ में कथित मिथ्यात्व वमन, सम्यक्त्व भावना, भक्ति, नमस्कार और ज्ञानाभ्यास इन पाँच विषयों का विवेचन यहाँ तक पूर्ण हुआ। अब आगे श्लोक ७५५ में कथित महाव्रतरक्षा, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय और तप में उद्यम, इन चारों का विवेचन किया जा रहा है। इन चारों में महारथा का प्रमाण बहु। विस्तृत है। अब पंच महाव्रत-रक्षा के प्रकरण में ___अहिंसा महाव्रत यावज्जीवं विमुञ्चस्व, यते ! षड्जीव-हिंसनम्। शरीर-वचनस्वान्तः, कृत-कारित-मोदितैः ।।८१०॥ अर्थ - हे यते ! तुम मन, बचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना से जीवन पर्यन्त के लिए षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करो ॥८१० ॥ यथा न ते प्रियं दुःखं, सर्वेषां देहिनां तथा। इति ज्ञात्वा सदा रक्ष, तान्स्वं स्वमिव यत्नतः ।।८११।। अर्थ - जैसे तुझे दुख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणियों को दुख प्रिय नहीं है, ऐसा जान कर अपने ही सदृश सब जीवों की यत्न से रक्षा करो।।८११॥ क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि, विधाय प्राणि-पीडनम् । मा कार्षीरपकारं त्वं, वपुर्वचन-मानसैः ।।८१२।। अर्थ - हे साधो ! तुम क्षुधा-तृषा आदि से पीड़ित होने पर भी मन, वचन, काय से प्राणियों को पीड़ा देकर अपना अपकार मत करो ।।८१२॥ 19
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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