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________________ मरणकण्डिका - २५४ प्रश्न - क्षपक को किस प्रकार के भाव नहीं करने चाहिए ? उत्तर - मैं कपूर का चूर्ण डाल कर सुगन्धित किया हुआ और बर्फ सदृश शीतल जल का पान करूँ, अथवा अति सुगन्धित कमलरज से व्याप्त सरोवर में स्नान करूँ। ललाट, मस्तक एवं मेरी विशाल छाती पर बर्फ की थैली रखो तो मुझे अति आहलाद होगा। यदि कमल, बालू और कोमल पल्लवों की शय्या मिलेगी तो ही मैं जीवित रह सकूँगा। मुझे रात-दिन प्यास सताती है, सूर्य के ताप से रक्षा कर पंखे की शीतल वायु से मेरा ताप शान्त करो। वर्षा हो, बर्फ गिरे, शीतल हवा चले। अथवा आग जलाकर मेरे शीतल शरीर को गरम करो, मुझे सुगन्धित और गर्म दूध पिलाओ, अपूप आदि सुन्दर मिष्टान्न खिलाओ, इत्यादि। इस प्रकार के भाव क्षपक के मन में नहीं आने चाहिए। ऐसे परिणामों से अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है। वेदना उत्पन्न हो जाने पर सोचना चाहिए कि असाता के तीव्र उदय से यह भूख, प्यास एवं गर्मी-सर्दी आदि की तीव्र वेदना उत्पन्न हुई है अत: उसका उपशमन होने पर स्वयमेव बाह्य अनुकूल पदार्थों का संयोग मिल जावेगा अतः उनके लिए मुझे अपनी समता भंग नहीं करनी चाहिए। हर्षोत्सुकत्व-दीनत्व-रत्यरत्यादि-संयुतः। त्वं भोग-परिभोगार्थ, मा कार्षीर्जीव-बाधनम् ॥८१३ ॥ अर्थ - हर्ष, उत्सुकता, दीनपना, रति एवं अरति आदि खोटे भावों से युक्त होकर तुम भोग एवं उपभोग के लिए जीवों को बाधा मत देना ।।८१३॥ माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा, स्तोक-स्तोकेन संचितम् । मा नीनशो जगत्सारं, संयम चेन्न पूरयः ।।८१४॥ अर्थ - मधुमक्खियाँ जैसे थोड़ा-थोड़ा मधु-संचय करती हुई एकत्र कर पाती हैं, वैसे ही हे क्षपक ! तुम्हारे द्वारा थोड़ा-थोड़ा करके जो संयम संचय किया गया है, जगत् में सारभूत उस संयम को यदि पूर्ण न कर सकें तो भी नष्ट तो मत करना ।।८१४ ।। नृत्वं जाति: कुलं रूपमिन्द्रियं जीवितं बलम् । श्रवणं ग्रहणं बोधिः, संसारे सन्ति दुर्लभाः ॥८१५ ॥ __ अर्थ - संसार में मनुष्य-भव प्राप्त होना दुर्लभ है, उसमें उच्च जाति, उच्च कुल और भी अधिक दुर्लभ है, उसमें भी सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, दीर्घायु, बल, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण उत्तरोत्तर अतिदुर्लभ हैं। ये कथंचित् सुलभ भी हो जावें किन्तु बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति तो अत्यधिक दुर्लभ है ।।८१५॥ प्रश्न - मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तद्वीपज और सम्मूर्छनज के भेद से मनुष्य चार प्रकार के होते हैं। जहाँ असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और सेवा अथवा न्यायदान, ऐसे छह कार्यों से उपजीविका की जाती है, जहाँ के मनुष्य संयम एवं तप में तत्पर रहते हुए स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वे कर्मभूमिज मनुष्य हैं। पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह के भेद से ये कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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