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________________ मरणकण्डिका - २६५ अथवा द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोद्धावनं मतम्। अस्त्यकाले सुराणां च, मृत्युरित्येवमादि यत् ॥८५६ ।। अर्थ - 'देवों के अकालमरण होता है ऐसा कहना, अर्थात् जो नहीं है उसे 'है' कहना अभूत के उद्भावनरूप दूसरा असत्य है। आगम में देवों के अकालमरण का निषेध है फिर भी उसका अस्तित्व कहना असत्य है। ऐसे अन्य भी दृष्टान्त हैं ।।८५६।। 'अन्य का अन्य' कहना तृतीय प्रकार का असत्य है तृतीयं तमसय, यालालोसा भासते : पदार्थमन्य-जातीयं, गौ;जीत्येवमादिकम् ॥८५७। अर्थ - एक जाति की वस्तु को अन्य जाति की कहना, तीसरा असत्य है। जैसे बिना विचारे बैल को घोड़ा कहना। ऐसे अन्य उदाहरण भी समझना ।।८५७ ।। । सावधं गर्हितं वाक्यमप्रियं च मनीषिभिः । त्रि-प्रकारमिति प्रोक्तं, तुरीयकमसूनृतम् ॥८५८॥ अर्थ - मनीषियों ने चतुर्थ असत्य के तीन भेद कहे हैं। सावध वचन, गर्हित वचन और अप्रिय वचन ||८५८।। प्राणिघातादयो दोषाः, प्रवर्तते यतोऽखिलाः! सावधं तद्वचोज्ञेयं, षड्विधारम्भ-वर्णकम् ।।८५९ ।। अर्थ - जिस वचन से प्राणीवध आदि अखिलदोष उत्पन्न होते हैं वह सावध वचन है, जो षट्काय जीवों के आरम्भ का कथन करता है।।८५९ ॥ प्रश्न - 'षट्काय जीवों के आरम्भ' पद का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - जिस आरम्भ में षट्काय जीवों का घात हो ऐसे आरम्भ करने वाले वचन बोलना। यथाआग जलाओ, फूल चुनो, इस बर्तन का पानी भैंस ने पी लिया है अतः इसे धोकर पुनः भरो, इत्यादि। चोर को चोर, काने को काना कह देना, तथा मेरा यहाँ बोलना योग्य है या नहीं, अथवा मेरे वचन सदोष हैं या निर्दोष, इसका विचार किये बिना ही बोल देना, ये सब सावध वचन हैं। कर्कशं निष्ठुरं हास्यं, परुषं पिशुनं वचः। ईर्ष्यापरमसम्बद्धं, गर्हितं सकलं मतम् ॥८६०॥ अर्थ - कर्कश अर्थात् घमण्डयुक्त, निष्ठुर, हास्य मिश्रित, परुष, चुगली, ईर्ष्या परक और असम्बद्ध वचन ये सब गर्हित वचन हैं ।।८६० ॥ अवज्ञा-कारणं वैरं, कलहं त्रास-वर्धकम्। अश्रव्यं कटुकं ज्ञेयमप्रियं वचनं बुधैः॥८६१॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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