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________________ अर्थ- हे साधो ! तुम मन, वचन, काय से चार प्रकार के असत्य का त्याग करो । संयम को धारण भी यह जीव असत्यरूप भाषादोष से कर्म द्वारा बाधित होता है। अर्थात् अहिंसा का पालन करने पर . भी यदि असत्य बोलता है तो उसके कर्मबन्ध अवश्य होता है || ८५३ ॥ करते हुए मरणकण्डिका - २६४ सत्य महाव्रत का वर्णन मुञ्चासत्यं वच: साधो !, चतुर्भेदमपि त्रिधा । संयमं विदधानोऽपि, भाषा- दोषेण बाध्यते ।। ८५३ ।। प्रश्न- कर्मबन्ध के कारण तो मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप आत्मपरिणाम हैं और वचन आत्मपरिणाम है नहीं तो पुद्गल की है फिर असत्यवचन-त्याग का उपदेश क्यों ? उत्तर - " कारण बिना कार्य नहीं होता" इस नीत्यनुसार यहाँ मिथ्यात्व आदि को पुष्ट करने वाले या संयम से च्युत करने वाले आत्मपरिणाम कारण हैं और वचन उस आत्मपरिणाम के कार्य हैं अतः यहाँ कार्यरूप असत्य वचन के त्याग का अभिप्राय कारणरूप तज्जन्य आत्मपरिणाम का भी त्याग हो जाना है। - चार भेदों में सद्भूत अर्थात् विद्यमान का निषेध करना प्रथम असत्य वचन अर्थ असत् वचन है । जैसे मनुष्य का अकालमरण नहीं होता इत्यादि । आगम में मनुष्य के अकालमरण का कथन विद्यमान है और यह वचन उसका अपलाप करता है अतः 'सत् निषेध' नामक प्रथम असत्य है || ८५४ ॥ 'अभूत उद्भावक' असत्यवचन 'सनिषेध' असत्य वचन प्रथमं तद्वचोऽसत्यं यत् ततः प्रतिषेधनम् । अकाले मरणं नास्ति, नराणामिति यद्वचः ॥८५४ ॥ कलशोऽस्तीति यद्भूते, द्रव्यादीनां चतुष्टयम् । अपर्यालोच्य यत्प्रोक्तमभूतोद्भावकं जिनैः ।। ८५५ ॥ अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टय की अपेक्षाओं का विचार किये बिना ही घट पहले था उसे वर्तमान में विद्यमान है ऐसा कहना 'अभूत उद्भावक' नामक दूसरा असत्य वचन है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।। ८५५ । - प्रश्न जो घट पहले था उसे वर्तमान में विद्यमान कहना असत्य क्यों है ? उत्तर - कोई भी वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है, यह सिद्धान्त है । जो स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत् है वही पर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा असत् है। जैसे जो घट मिट्टी द्रव्य की अपेक्षा सत् है, वही स्वर्ण घट की अपेक्षा असत् है। जो घट इस क्षेत्र की अपेक्षा सत् है, वही घट अन्य क्षेत्र की अपेक्षा असत् है । जो घट वर्तमान काल की अपेक्षा सत् है वही अतीत एवं अनागत काल की अपेक्षा असत् है और जो घट स्व-स्वभाव की अपेक्षा सत् है, वही भावान्तर की अपेक्षा असत् है, अतः घट इस रूप से सत् है, इस रूप से असत् है ऐसा विचार किये बिना ही 'घट है' इस प्रकार घटको सर्वथा सत् कहना असत् का उद्भावन होने से असत्य ही है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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