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________________ मरणकण्डिका - २० जिनेन्द्रकथित एक अक्षर का अश्रद्धान करनेवाला भी मिथ्यादृष्टि है नैकमप्यक्षरं येन, रोच्यते तत्त्वदर्शितम् । स शेषं रोचमानोऽपि, मिटयादृष्टिरसंशयम् ॥४२॥ अर्थ - जो तत्त्व ऊपर दर्शाये गये हैं उनमें से किसी के द्वारा मात्र एक अक्षर पर भी यदि अश्रद्धान किया जाता है तो सर्व तत्वों की श्रद्धा होते हुए भी वह निःसन्देह मिथ्यादृष्टि है ।।४२ ।। प्रश्न - एक अक्षर का तो कोई अर्थ ही नहीं निकलता फिर उस क, ख, ग आदि अक्षर का अश्रद्धानी, मिथ्यादृष्टि कैसे हो जायेगा? उत्तर - यहाँ एक अक्षर से अभिप्राय थोड़े-से-थोड़े अक्षरों से निष्पन्न होने वाले द्रव्यश्रुत रूप उस आगमवाक्य से है जो जिनेन्द्रकथिन तत्त्व को दिखा रहा हो। इस प्रकार का आगमकथित थोड़ा सा भी अर्थ यदि किसी को नहीं रुचता तो वह मिथ्यादृष्टि ही है। जैसे बड़े कुण्ड में भरे हुए विपुल दृध को भी विष का एक कण दूषित कर देता है, उसी प्रकार अश्रद्धान का एक कण भी आत्मा को दूषित कर देता है। मिथ्यादृष्टि जीव की परिणति इस प्रकार होती है मोहोदयाकुलस्तत्त्वं, तथ्यमुक्तं न रोचते। जन्तुरुक्तमनुक्तं वा, विपरीतं तु रोचते ॥४३॥ मिथ्यात्वं वेदयन्नंगी, न तत्त्वे कुरुते रुचिम् । कस्मै पित्त-ज्वरा य, रोचते मधुरो रसः ॥४४।। अर्थ - मोह अर्थात् मिथ्यात्व कर्म के उदय से आकुलित चित्तवाले मनुष्य को जिनेन्द्रप्रणीत समीचीन तत्त्व रुचिकर नहीं होता। अर्थात् उस पर उसकी श्रद्धा नहीं होती किन्तु उसको उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट विपरीत अर्थात् असमीचीन तत्त्व पर श्रद्धा हो जाती है ।।४३ ।। मिथ्यात्व का वेदन करने वाले अर्थात् अनुभव करने वाले जीव की जिनेन्द्रप्रणीत तत्त्व उसी प्रकार नहीं रुचता जिस प्रकार पित्तज्वर से दुखी मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता ॥४४ ।। मिथ्यात्व का फल अनेनाश्रद्दधानेन, जिन-वाक्यमनेकशः । बाल-बाल-मृतिः प्राप्ताः, कालेऽतीते (यतोऽङ्गिना)॥४५॥ अर्थ - जिस जीव ने जिनोपदिष्ट वचनों पर श्रद्धा नहीं की उस जीव ने अतीत काल में अनेक बार बालबाल मरण किये हैं।॥४५॥ प्रश्न - मिथ्यादृष्टि जीव समीचीन तत्त्व पर श्रद्धान क्यों नहीं कर पाता ? उत्तर - मिथ्यात्व प्रकृति का स्वभाव मद्य के सदृश है। जैसे मद्य अपने पीने वाले व्यक्ति की बुद्धि को मन्द, विपरीत और उच्छृखल बना देती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति का विपाक जीव की बुद्धि को मन्द, विपरीत और भ्रामक बना देता है जिससे वह ग्यारह अंग का पाठी होते हुए भी जिनोपदिष्ट हितकारी वचनों पर समीचीन श्रद्धा नहीं कर पाता।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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