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________________ परणकण्डिका - १९ रहते हैं। मतिज्ञानावरण कर्म प्रकृति के अनेक प्रकार के उदय एवं क्षयोपशम विशेष से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रियों में ही बार-बार उत्पन्न होते हैं। पर्याप्ति-अपर्याप्ति नामकर्म के उदय से कभी पर्याप्त, कभी अपर्याप्त होते रहते हैं। आयुकर्म की मजबूत सांकल के कठोर बन्धन से निरन्तर कहीं-न-कहीं बँधे ही रहते हैं। नौ प्रकार की योनियों के आश्रयभूत शरीरों में उनकी अति-आसक्ति रहती है। मृत्युरूपीक्रूर वज्रपात से, जिसे टालना अशक्य है, उनके चित्त सदा भयभीत रहते हैं। ऐसे ये संसारी जीव पृथ्वीकाय आदि के भेद से छह प्रकार के होते हैं। जो अंजनसिद्धि तथा पादुका आदि सिद्धियों को छोड़ कर, जो एक ही प्रकार की है ऐसी आत्मसिद्धि को प्राप्त हैं तथा अष्ट कर्मों से रहित हैं, ऐसे परमात्मा सिद्ध जीव हैं। श्लोक ३९ में अजीव स्वरूप पाँच द्रव्यों की श्रद्धा करने वाले को एवं श्लोक ४० में जीव द्रव्य की श्रद्धा करने वाले को अर्थात् जीव और अजीव इन दो तत्त्वों की श्रद्धा करने वाले को दर्शनाराधक कहा गया है, अब आम्रव आदि पाँच तत्वों की तथा पुण्य और पाप की श्रद्धा करने वाले को दर्शनाराधक कहा जा रहा है - आसवं संवरं बन्धं, निर्जरां मोक्षमञ्जसा। पुण्यं पापं च सदृष्टिः, श्रद्दधाति जिनाज्ञया ।। ४१ ।। अर्थ - आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन सबकी जिनेन्द्राज्ञानुसार भली प्रकार श्रद्धा करने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक होता है ।।४१ ।। प्रश्न - दर्शन-आराधक को किस-किस की श्रद्धा करने के लिए प्रेरित किया गया है? उत्तर - दर्शनाराधक को जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों की; पुण्य एवं पाप सहित नौ पदार्थों की; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों की और इनमें से काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच अस्तिकाय द्रव्यों की जिनेन्द्राज्ञानुसार श्रद्धा करनी चाहिए। प्रश्न - इन सबके क्या लक्षण हैं ? उत्तर - उपयोग गुण वाला जीव तत्त्व है। जड़ स्वभाव वाला अजीव तत्त्व है। मन वचन काय रूप योग द्वारा कर्मों का आत्मा में प्रविष्ट होना आस्रव है। कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होना बन्ध है। आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है । संचित कर्मों का तप द्वारा अंश-अंश रूप से निर्जीर्ण होना निर्जरा है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है। ये सात तत्त्व हैं । इष्ट को प्राप्त कराने वाला पुण्य है और अनिष्ट का सम्पादन करने वाला पाप है। अथवा प्रशस्त कर्म को पुण्य और अप्रशस्त कर्म को पाप कहते हैं, सात तत्त्व और पुण्य एवं पाप ये नौ पदार्थ हैं। जिसमें जानने-देखने की शक्ति है वह जीव द्रव्य है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण वाला पुद्गल द्रव्य है। जो गतिमान जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति का उदासीन हेतु है वह धर्मद्रव्य है। जो ठहरे हुए इन दोनों द्रव्यों की स्थिति का उदासीन हेतु है वह अधर्म द्रव्य है। जो सर्व द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति से युक्त है वह आकाश द्रव्य है और जो सर्व द्रव्यों के वर्तन अर्थात् परिवर्तन का उदासीन हेतु है वह काल द्रव्य है, ये छह द्रव्य हैं। इनमें से काल द्रव्य के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य अस्तिस्वरूप भी हैं और बहुप्रदेशी भी हैं अत: ये पंचास्तिकाय नाम से भी कहे जाते हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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