SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डेिका - १९१ का पालन करनेवाले साधुओं को उपर्युक्त आराधना-प्राप्ति रूप महान् लाभ होता है। यह जान कर तुम दर्शन और चारित्र की शुद्धि करके शल्य रहित होते हुए मोक्ष-मार्ग में प्रवर्तन करो अर्थात् निःशल्यता पूर्ण आचरण करो ॥५७१॥ सम्यगालोचयेत्सर्वमनुद्विग्नमविस्मृतम् । अनिर्मूढमनिर्मोहं, निर्मूलमपगौरवम् ।।५७२॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुम शान्त चित्त से, बिना भूले, बिना कुछ छिपाये, निर्मोह भाव से गारव रहित होते हुए निर्मूलतया अर्थात् दीक्षाकाल से अद्यावधि रत्नत्रय में लगे अतिचारों की पूर्णरूप से निर्भय होकर सम्यकू आलोचना करो ॥५७२॥ भय-मान-मृषा-माया-मुक्तेन प्राञ्जलात्मना। बालेनेवाभिधेयानि, कृत्याकृत्यानि धीमता ॥५७३ ।। अर्थ - जैसे बालक किये हुए कार्य-अकार्य को भय, मान, झूठ एवं माया-प्रपंच से रहित हो सरलभाव से कह देता है, वैसे ही बुद्धिमान क्षपक को अपने द्वारा किये गये कार्य-अकार्य को गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए ||५७३ ॥ सम्यक्-स्वज्ञान-वृत्तेषु, विधायालोचनां यते ! कुरु सल्लेखनां सम्यक्-क्रमेणापास्त कल्मषः ॥५७४॥ अर्थ - हे यते ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में लगे हुए अतिचारों को माया पाप से रहित हुए तुम आलोचना करो, पश्चात् शुद्ध मन से क्रमानुसार सम्यक् सल्लेखना करो ॥५७४ ।। इत्युक्तं सूरिणोत्कृष्टां, चिकीर्षुः क्षपको मृतिम्। जात-सर्वाङ्ला-रोमाञ्चः, प्रमोदभर-विह्वलः ।।५७५।। अर्थ - आचार्य द्वारा क्षपक को इस प्रकार उपदेश दिये जाने पर उत्कृष्ट समाधिमरण करने का इच्छुक क्षपक अत्यन्त प्रसन्नता से हर्ष-विभोर होता हुआ सर्वांग में रोमाञ्चित हो जाता है॥५७५ ।। आलोचना के लिए दिशा निर्धारण चैत्यस्य सम्मुखः प्राच्यामुदीच्यां वा दिशः स्थितः। कायोत्सर्ग-स्थितो धीरो, भूत्वा कायेऽपि निस्पृहः ॥५७६ ॥ अर्थ - जिनबिम्ब के सम्मुख या पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके शरीर से भी निस्पृह वह धीर क्षपक कायोत्सर्ग करता है ।।५७६ ।। प्रश्न - वह क्षपक कायोत्सर्ग कैसे और क्यों करता है ? उत्तर - गुरु को अपने दोषों का निवेदन करने के पूर्व क्षपक विधिपूर्वक अर्थात् सामायिक दण्डक, थोस्सामि दण्डक, आवर्त और शिरोनति पूर्वक सिद्धभक्ति करके कायोत्सर्ग करता है। कायोत्सर्ग में लीन होने से क्षपक को दोषों का स्मरण हो जाता है, अतः कायोत्सर्ग आलोचना का कारण है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy