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________________ मरणकण्डिका - २५६ त्रैलोक्येन यतो मूल्यं, जीवितव्यस्य जायते । जीव- जीवित- घातोऽतस्त्रैलोक्य- हननोपमः ॥ ८१७ ॥ अर्थ - तीनों लोक और जीवन इन दोनों में से तुम किसी एक को स्वीकार करो। ऐसा किसी देव के द्वारा कहे जाने पर कौन प्राणी अपना जीवन त्याग कर तीनों लोकों को ग्रहण करेगा ? अतः यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक प्राणी के जीवन का मूल्य तीन लोक है, अतः जीवघात करने वाले को तीनों लोकों के घात करने सदृश दोष होता है ।।८१६-८१७॥ अर्थ - जैसे विशाल अन्य कोई प्राप्य दुर्लभ संतत्या, श्रामण्यं सुख-साधकम् । एकाग्र मानसो रक्ष, निधानमिव सर्वदा ।।८१८ ॥ अर्थ - परम्परा से मिले हुए उस दुर्लभ सुख के साधनभूत मुनिपने को प्राप्त करके हे क्षपक ! एकाग्र मन होकर निधि के समान तुम इसी की सदा रक्षा करना ||८१८ ॥ अल्पं यथाणुतो नास्ति, महदाकाशतो यथा । अहिंसाव्रततो नास्ति, तथा परमुरुव्रतम् ।।८१९ ॥ अणु से छोटा और आकाश से बड़ा अन्य कोई द्रव्य नहीं है, वैसे ही अहिंसा व्रत से नहीं है ।।८१२ ।। पर्वतेषु यथा मेरुश्चक्रवर्ती यथा नृषु । जीव- रक्षाव्रतं सारं, सर्वस्मिन्नपि व्रते तथा ॥। ८२० ॥ अर्थ - जैसे सब पर्वतों में सारभूत श्रेष्ठ पर्वत सुमेरु है और मनुष्यों में महान् चक्रवर्ती है, वैसे ही सर्व व्रतों में श्रेष्ठ व्रत अहिंसाव्रत है || ८२० ॥ अहिंसा व्रत सब व्रतों का आधार है। यथाकाशे स्थितो लोको, धरण्यां द्वीप-सागराः ! सर्व व्रतानि तिष्ठन्ति, जीवत्राण-व्रते तथा ॥। ८२१ ।। अर्थ - जैसे यह लोक आकाश के आधार और सर्व द्वीप समुद्र पृथिवी के आधार स्थित हैं, वैसे ही सर्व व्रत अहिंसाव्रत के आधार पर स्थित हैं ॥ ८२१ ॥ यथा तिष्ठन्ति चक्रस्य, न तुम्बेन विनारकाः । एतैर्विना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ॥८२२ ॥ तथा शीलानि तिष्ठन्ति, न विना जीवरक्षया । तस्याः शीलानि रक्षार्थं, सस्यादीनां यथा वृतिः ॥ ८२३ ॥ अर्थ - जैसे चक्र के आरे तुम्बी बिना नहीं ठहरते और आरों के बिना नेमि अर्थात् धुरा नहीं ठहरती,
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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