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मरणकण्डिका - ५६८
शव - विसर्जन के पश्चात् करने योग्य कर्त्तव्य
सम्पद्यतां नोऽपि विनान्तरायमाराधनैवेति गणेन कार्यः ।
पुर्विसर्ग: क्षपकाधिवासे, पृच्छा च तस्मिन्नधिदेवतानाम् ।। २०६७ ।।
अर्थ - 'हमें भी इसी प्रकार बिना विघ्न बाधा के आराधना की प्राप्ति हो' इस भावना से संघ एक कायोत्सर्ग करे तथा क्षपक की वसतिका के अधिष्ठाता देवता से उसके प्रति इच्छाकार करे कि आपकी इच्छा से संघ इस स्थान पर बैठना चाहता है || २०६७ ॥
समाधिमरण के पश्चात् संघ का कर्त्तव्य
उपवासमनध्यायं कुर्वन्तु स्वगण-स्थिताः ।
अनध्यायं मृतेऽन्यस्मिन्नुपवासो विकल्प्यते । २०६८ ।।
अर्थ - अपने संघ के साधु का स्वर्गवास होने पर उस दिन उपवास करना चाहिए और स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। दूसरे संघ के साधु का मरण होने पर स्वाध्याय तो नहीं ही करना चाहिए, उपवास भजनीय है; करे अथवा न भी करे ।। २०६८ ॥
गत्वा सुख-विहाराय सङ्घस्य विधि - कोविदैः ।
द्वितीयेऽह्नि तृतीये वा, द्रष्टव्यं तत्कलेवरम् ॥ २०६९ ।।
अर्थ - क्षपक के शरीर को स्थापित करने के दूसरे या तीसरे दिन निषद्या स्थल पर जाकर बुद्धिमान साधुजन क्षपक के शव को देखें कि संघ का विहार सुखपूर्वक होगा या नहीं ? ॥२०६९ ॥
यावन्तो वासरा गात्रमिदं तिष्ठत्यविक्षतम् ।
शिवं तावन्ति वर्षाणि तत्र राज्ये विनिश्चितम् ॥। २०७० ॥
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अर्थ - जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदि पशुओं एवं पक्षियों से सुरक्षित रहता है अर्थात् क्षतविक्षत नहीं होता उतने वर्षों तक उस राज्य में नियमतः सुख-शान्ति रहती है । २०७० ॥
आकृष्य नीयते यस्यां तदङ्गं श्वापदादिभिः ।
विहर्तुं युज्यते तस्यां सङ्घस्य ककुभि स्फुटम् ॥। २०७१ ॥
अर्थ - ( क्षपक के कलेवर को अथवा उसके किसी अंग को पक्षी आदि जिस दिशा में ले जाते हैं उस दिशा में क्षेमकुशलता रहती है अतः) क्षपक का कलेवर अथवा उसके अंग जंगली पशु-पक्षियों द्वारा खींच कर जिस दिशा में ले जाये गये हों उसी दिशा में संघ को विहार करना चाहिए || २०७१ ||
क्षपक की गति का अनुमान ज्ञान
यदि तस्य शिरो दन्ता, दृश्येरन्नगमूर्धनि ।
तदा कर्म - मलान्मुक्तो, ज्ञेयः सिद्धिमसौगतः ॥ २०७२ ।।
अर्थ - यदि क्षपक का सिर और दाँत पर्वत के शिखर पर दिखाई दें तो वह कर्ममल से छूट कर सिद्धिभवन अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हुआ है, ऐसा जानना चाहिए || २०७२ ||