SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ७९ तप। भाधना से सल्लेखना सहज सिद्ध होती है विधापित: क्रिया योग्यां सर्वदा दुःख-वासितः। बाह्यमानो यथा वाजी, कार्यकारी रण-क्षितौ ।।२०० ।। विधापितस्तपो योग्यं, हृषीकार्थ-पराङ्मुखः । जायते मृत्युकालेगी, परीषह-सहस्तथा ।।२०१॥ 1 तपो भावना॥ अर्थ - जिस अश्व को पहले भ्रमण करना तथा कूदने आदि का अभ्यास कराया गया है तथा क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण आदि दुखों से चिरकाल तक संस्कारित किया गया है, ऐसा अश्व रणभूमि में शत्रु को जीतने में स्वामी की सहायता करता है।।२०० ।। उसी प्रकार जो साधु पूर्वकाल में इन्द्रियविषयों से विरक्त रहता है और अनशन आदि योग्य तप तपता है वह मरणकाल में परीषह सहन करने में समर्थ होता है अर्थात् शरीर एवं विषय सुख में आसक्त नहीं होता ।।२०१।। ॥ इस प्रकार तपो भावना पूर्ण हुई। ज्ञान भावना चतुरङ्ग परीणाम, श्रुतभावनया परः । निर्व्याक्षेपः प्रतिज्ञातं, स्वं निर्वाहयते ततः ॥२०२॥ स्वन्यस्त-जिनवाक्यस्य, रचितोचित-कर्मणः। परीषहापदः शक्ता, न कर्तुं स्मृति-लोपनम् ॥२०३॥ इति श्रुतम्॥ अर्थ - श्रुतभावना से अर्थात् आगमार्थ के सतत अभ्यास से साधु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तप एवं चारित्र इन चारों रूप परिणमन करता है, तथा विकल्प या आकुलता रहित अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह स्वयं कर लेता है॥२०२।। जिनेन्द्रकथित आगमार्थ में जिसने अपने को लगाया है, तथा जो पठन एवं मनन आदि क्रियाओं में अपने चित्त को संलग्न रखता है उसकी स्मृति का लोप करने में परीषहरूपी आपदाएँ कदापि समर्थ नहीं होती ।।२०३ ॥ प्रश्न - श्रुतभावना किसे कहते हैं और इससे चारों आराधनाओं में परिणमन कैसे हो सकता है? उत्तर - द्रव्यश्रुत के अर्थविषयक ज्ञान में बार-बार प्रवृत्ति होना श्रुतभावना है। अथवा आगम वाक्य सुनकर उसके अर्थ का बार-बार चिन्तन होना ज्ञानभावना है। ज्ञान भावना होने पर तप और संयम भजनीय हैं। अर्थात् होते भी हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा देशव्रती के नहीं भी होते हैं, किन्तु जहाँ तप और संयम है वहाँ ज्ञान-दर्शन भावनाएँ अवश्य होती हैं, क्योंकि तप और संयम कार्य हैं। ये चारित्रमोह के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा सहित ज्ञान के होने पर ही होते हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy