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________________ मरणकण्डिका - ८० प्रश्न - यहाँ किस प्रकार की स्मृति ग्रहण की गई है और उसके रक्षण का क्या उपाय है? उत्तर - यहाँ वह स्मृति ग्रहण की गई है जो सदा रत्नत्रय रूप परिणामों को सम्पन्न करने में उद्यमशील रहती है। तपश्चरण से और सतत निर्मल तथा प्रबल श्रुताभ्यास के बल से स्मृति बिना खेद के रत्नत्रय रूप को सुचारुरीत्या सम्पन्न कर देती हैं, अत: उसका रक्षण श्रुतज्ञान के सतत अभ्यास से ही हो सकता है। वचन और शरीर की सर्व प्रवृत्तियाँ स्मृति पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार श्रुतभावना पूर्ण हुई। सत्र गाना के गुणों का मान भीष्यमाणोऽप्यहो-रात्रं, भीमरूपैः सुरासुरैः । सत्त्वभावनया साधु, धुरि-धारयतेऽखिलम् ।।२०४॥ विमुह्यत्युपसर्गे नो, सत्त्वभाषनया यतिः । युद्ध-भावनया युद्धे, भीषणेऽपि भटो यथा ।।२०५।। ॥ सत्त्वभावना॥ अर्थ – भयंकर रूप धारण करनेवाले देव एवं असुरों द्वारा दिनरात डराये जाने पर सत्त्व भावना के बल से दुख सहन करते हुए भी वे महामुनि संयम के समस्त भार को वहन कर लेते हैं ॥२०४ ।। युद्धभावना के बल से जैसे सुभट भीषण युद्ध में भी नहीं डरता, वैसे ही सत्त्व भावना के बल से मुनिराज भयंकर उपसर्ग आदि आ जाने पर भी मोहित अर्थात् संयम से विचलित नहीं होते॥२०५॥ प्रश्न - सत्त्व भावना का लक्षण और फल क्या है, तथा इस भावना को कैसे दृढ़ किया जाता है? उत्तर - मूलगुणों और उत्तरगुणों का प्रतिपालन करते समय भयरहित वर्तन करना सत्त्व भावना है। घोर उपसर्ग आदि आने पर भी निर्भयता एवं उत्साहपूर्वक संयम में दृढ़ रहने से उसी भव में मोक्ष प्राप्त होता है, यह इसका उत्कृष्ट फल है। भयंकर उपसर्ग एवं परीषहों की वेदना सोत्साह सहन करने हेतु महामुनिराज चतुर्गति के दुखों का चिन्तन करते हुए सत्त्वभावना को दृढ़ करते हैं। यथा - अनादिकाल से संसार-परिभ्रमण करते हुए मैंने नरकगति में अनेक बार असह्य वेदनाएँ भोगी हैं। तिर्यंचगति में पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक पर्यायों में जन्म ले-लेकर नाना प्रकार के दुख भोगे हैं। लट, चींटी, भौरा, गिद्ध आदि पक्षियों में, व्याघ्र, कुत्ता तथा सूकर आदि पशु पर्यायों में अनन्त बार अनिर्वचनीय दुख्ख भोगे हैं। मनुष्य पर्याय में मैंने इन्द्रियों की हीनाधिकता से, दरिद्रता से, असाध्य रोगों से, इष्टवियोग से, इष्ट वस्तु की अप्राप्ति से, अप्रिय के संसर्ग से एवं दूसरों की चाकरी आदि से अनेक प्रकार की आपत्तियाँ भोगी हैं। इसी प्रकार देवपर्याय में भी-दूर हटो, शीघ्र चलो, स्वामी के प्रस्थान का समय है, प्रस्थान के नगारे बजाओ, ध्वजा लो, निराश देवियों की देख-भाल करो, स्वामी को जो इष्ट है ऐसे वाहन का रूप धारण कर खड़े रहो। क्या अति पुण्यशाली इन्द्र की दासता को भूल गये हो जो चुपचाप खड़े हो, आगे नहीं दौड़ते.......। इस प्रकार देवों के प्रधानों के अति कठोर वचनरूपी कीलों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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