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________________ मरणकपिडका - ३३२ वर्ष वातं क्षुधं तृष्णा, तापं शीतं श्रमं क्लमम् । दुर्भुक्तं सहतेऽर्थार्थी, भार वहति पुष्कलम् ॥११८७॥ अर्थ - परिग्रह का इच्छुक मनुष्य वर्षा, वायु, क्षुधा, तृषा, ताप, शीत, परिश्रम, दुख, खोटा भोजन तथा बहुत भार ढोना आदि अनेक कष्ट भोगता है ।।११८७।। कृषति दीव्यति सीव्यति खिद्यते, वपति पति त्रस्यति याचते। धमति धावति वल्गति सेवते, रुदति ताम्यति नृत्यति गायते ।।११८८ ।। अर्थ - कुलीन भी धनार्थी मनुष्य खेती करता है, क्रीड़ा करता है, वस्त्र सीता है, खेदित होता है, धान्य बोता है, दूसरों की ओर आशा से देखता है, घबराता है, याचना करता है, अग्नि धोंकता है, कुछ पाने की इच्छा से आगे-पीछे दौड़ता है, यद्वा-तद्वा बकता है, सेवा करता है, दीनता पूर्वक रोता है, दुखी होता है, नाचता है और गाता है ॥११८८ ॥ पठति जल्पति लुण्ठति लुम्पते, हरति रुष्यति नश्यति लिख्यते। रजति कस्यति दहति सिञ्चति, (लवति) मुह्यति वन्दते ।।११८९॥ अर्थ - पढ़ता है, चिल्लाता है, डाकू के सदृश दूसरों का धन लूटता है, धन लेकर छिपता है, अपहरण करता है, रोष करता है, सन्तुष्ट होता है, नष्ट हो जाना चाहता है, किसी का लेखन-कार्य करता है, रक्षक बनता है, कृषक बनता है, जलता है, बगीचे आदि में जल सींचता है, लकड़ी आदि काटता है, मोहित होता है और धन के लिए जिस किसी को नमस्कार आदि करता है ।।११८९ ।। श्वसिति रोदिति माद्यति लज्जते, हसति तृष्यति दृष्यति नृत्यति। तुदति गृध्यति रज्यति सज्जते, द्रविणलुब्धमना: कुरुते न किम् ।।११९० ॥ अर्थ - जोर-जोर से श्वास लेता है, रोता है, मतवाला हो जाता है, लज्जित होता है, हँसता है, तृष्णा करता है, देखता है, नृत्य करता है, खेद करता है, गृद्धि करता है, रंजित होता है और कभी अपने आप को सज्जित करता है। इस प्रकार जिसका मन धन में लुब्ध हुआ है वह क्या-क्या नहीं करता है ।।११९० ॥ क्रीणाति वयते वस्त्रं, गो-महिष्यादि रक्षति । अर्थार्थी लोह-काष्ठास्थि-स्वर्णकर्म करोति ना ।।११९१॥ अर्थ - धनार्थी मनुष्य वस्त्र बेचता है, वस्त्र बुनता है, गाय-भैंसादि पशुओं की रक्षा करता है, लौह कर्म, काष्ठ कर्म, अस्थि कर्म एवं स्वर्ण कर्म आदि करता है ।।११९१॥ रुधिर-कर्दम-दुर्गममाहवं, निशित-शस्त्र-विदारित-कुञ्जरम्। हरिपुरस्सर जन्तु-विभीषणं, भ्रमति वित्त-मना गहनं वनम् ।।११९२ ॥ अर्थ - पैने-पैने शस्त्रों से जहाँ हाथी विदारित किये गये हैं और जो रुधिर के कीचड़ से दुर्गम है, धनार्थी मनुष्य ऐसे रणक्षेत्र में भी प्रवेश करता है तथा जिसका मन धन में लुब्ध है वह मनुष्य शेर-व्याघ्र आदि बहुत से जंगली पशुओं से भीषण गहन-वन में भी प्रवेश करता है।।११९२ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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