SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ५९९ अर्थ - वे सयोगी जिन सूक्ष्म लेश्या के द्वारा सूक्ष्म काययोग से सातावेदनीय रूप ईर्यापथ आस्रव करके उसी कर्म प्रकृति का बन्ध करते हैं और सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती शुक्ल का प्रारम्भ करते हैं।।२१९४ ।। प्रश्न - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती नामक तीसरे शुक्लध्यान का प्रारम्भ करते हैं, ऐसा क्यों कहा ? उत्तर - तीसरे पाये का प्रारम्भ इसलिए कहा गया है कि सूक्ष्म-काययोग में स्थित होने के पूर्व तेरहवें गुणस्थान के शेष सम्पूर्ण काल में और समुद्घात काल में भी यह शुक्लध्यान नहीं होता, इसका प्रारम्भ यहीं होता है। सूक्ष्म काययोग का विनाशादि सूक्ष्मक्रियेण रुद्धोऽसौ, ध्यानेन सूक्ष्म-विग्रहः । स्थिरीभूत-प्रदेशोऽस्ति, कर्मबन्ध-विवर्जितः ।।२१९५॥ अर्थ - उस सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती शुक्ल ध्यान द्वारा सूक्ष्मकाययोग का निरोध कर सातावेदनीय जन्य ईर्यापथ आस्रव रूप कर्मबन्ध से भी रहित होते हुए वे अयोगी जिनेन्द्र अपने आत्मप्रदेशों में ही स्थिर हो जाते हैं।।२१९५।। अयोगीजिन की उदयगत कर्मप्रकृतियाँ अयोगोऽन्यतरद्वेद्यं, नरायुनू-द्वय त्रसम्। सुभगादेय-पर्याप्नं, पञ्चाक्षोच्च-यशांसि सः ॥२१९६ ।। खादरं तीर्थकृत्वैतास्तीर्थकारी त्रयोदश। न परो वेदयते साधुस्तदानीं द्वादश स्फुटम् ।।२१९७ ।। अर्थ - साता और असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी (यहाँ इसका उदय नहीं रहता। इसके द्रव्य का स्तिबुक संक्रमण मनुष्यगति में हो जाता है), त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, उच्चगोत्र, यशः कीर्ति, बादर और तीर्थकर, इन तेरह कर्मप्रकृतियों का उदय-तीर्थंकरों के होता है किन्तु जो तीर्थंकर नहीं हैं, सामान्य अयोग-केवली हैं उनके नियमत: बारह प्रकृतियों का ही उदय रहता है।॥२१९६-२१९७।। प्रश्न - अयोगकेवली के चरम समय में ग्यारह प्रकृतियों का उदय कैसे कहा गया है ? उत्तर - जिन आचार्यों के मत से मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरमसमय में हो जाता है और यदि वे तीर्थंकर नहीं हैं तो उनके मात्र ग्यारह प्रकृतियों का ही उदय रहता है। शरीर नष्ट करने का उद्यम देह-त्रितय-बन्धस्य, ध्वंसायायोगकेवली। समुच्छिन्न-क्रियं ध्यानं, निश्चलं प्रतिपद्यते ।।२१९८ ।। अर्थ - अयोगी जिन परम औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों को नष्ट करने के लिए समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती अपर नाम व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक निश्चय शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं ।।२१९८॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy