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पूज्य माताजी स्पष्ट और निर्भीक धर्मोपदेशिका रहीं। सत्य बात, चाहे कटु हो पर आगे-पीछे कहना आपके स्वभाव में नहीं रहा। उसी समय सबके सामने प्रत्यक्ष कहने में आपकी आत्मा किंचित् भी हिचकती नहीं थी। जनानुरंजन की क्षुद्रवृत्ति को आप अपने पास फटकने भी नहीं देती थी। अपनी चर्या में 'वज्रादपि कठोराणि' थी तो दूसरों को धर्ममार्ग में लगाने के लिए ‘मृदूनि कुसुमादपि' । स्वकल्याण के साथ पर-कल्याण की अति तीव्र भावना आपके भीतर थी। शारीरिक शक्ति अत्यन्त क्षीण होते हए भी श्रावक-श्राविकाओं को आत्मकल्याण संबंधी शिक्षा के दो शब्द बताने की आपकी भावना हमेशा बनी रहती थी। ज्ञानपिपासु माताजी ज्ञानाराधना में संलग्न रहती थीं।
संयमरूपी मंदिर के शिखर पर समाधि रूपी कलश चढ़ाने की भावना आपकी प्रतिक्षण बनी रहती थी। आपके समीचीन मार्गदर्शन-निर्देशन में परम पूज्य आचार्यकल्प सन्मतिसागरजी महाराज श्री, प. पू. महेन्द्रसागर जी महाराजश्री, पू. आर्यिका विमलमती माताजी, पू. आर्यिका सिद्धमती माताजी. पू. आर्यिका पवित्रमती माताजी आदि एवं अन्य श्रावक-श्राविकाओं की समाधि सम्पन्न हुई। समाधि सम्पन्न कराने में क्षपक की वैयावृत्य आदि करने-कराने की आत्मिक क्षमता आपमें विशेष रूप से थी। शारीरिक दुर्बलता के कारण आप प्राय: यही कहती थीं कि इस काल में १२ साल की सल्लेखना नहीं लेनी चाहिए। पर आपकी आत्मा ने भीतर से एक ऐसी आवाज दी कि ६० वर्ष की वय में ही आपने अत्यन्त साहलपूर्वक १२ साल की सल्लेखना पूज्य आचार्य अजितसागरजी महाराज से ग्रहण की। सल्लेखना धारण करते ही आपका लक्ष्य परिवर्तित हो गया। आगमसेवा के साथ अब तपश्चरण की ओर भी ध्यान बढ़ता गया | सल्लेखना के साथ ऐसा नियम लिया कि प्रतिवर्ष कुछ-न-कुछ वस्तुओं का त्याग करना और प्रतिवर्ष एक नया व्रत ग्रहण करना | अपनी प्रतिज्ञानुसार आपने एक रस से, नीरस से और बाद में उपवास से व्रत प्रारम्भ किये। इस परित्याग के साथ बेला-बेला उपवास किये।
१६ जनवरी, २००२ को बारह वर्षीय सल्लेखना अवधि पूर्ण होने पर माताजी ने जीवन पर्यन्त के लिए पेय-जल का भी त्याग कर दिया। साधना क्रम में अन्न का त्याग तो बहुत पहले हो चुका था।
जलत्याग के बाद छह दिन की कठोर साधना के अनन्तर २२ जनवरी २००२ को पूज्य माताजी की पुनीत आत्मा ने प्रात: साढ़े चार बजे ब्राह्ममुहूर्त में आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज और गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती जी से पंच नमस्कार मंत्र सुनते हुए स्वर्ग की ओर महाप्रयाण किया।
दृढ़ संयमी, आर्षमार्ग की कट्टर पोषक, निःस्पृह, परम विदुषी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगममर्मस्पशी, मोक्षमार्ग की पथिक, स्व-पर उपकारी पूज्य माताजी की पुनीत आत्मा स्वर्गिक सुखों के लाभ के बाद नरपर्याय धारण कर मुक्तिरमा को यथाशीघ्र वरण करे, यही भावना भाता हूँ। उस पुनीत आत्मा को शतशत वन्दन।
- डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी