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________________ मरणकाण्डका - ३७१ उत्तर - मानकषाय की पुष्टि या अभिमान के वशीभूत होकर साधुजन भी देवादि पर्याय या सुन्दरसुडौल शरीर की इच्छा रूप अप्रशस्त निदान कर बैठते हैं, जिसका फल अत्यन्त कष्टप्रद अर्थात् सप्तार परिभ्रमण स्वरूप होता है, अत: मानकषाय के नाश का उपदेश दिया गया है। प्रश्न - शरीर का चिन्तन मानकषाय को दूर करने में निमित्त कैसे हो सकता है? मान कषाय के दोष कौन-कौन से हैं और संसार-निगता क्या है ? उत्तर - यद्यपि 'मान' शब्द सामान्य मान का वाधी है, तथापि यहाँ उसे रूप विषयक अभिमान के अर्थ में ग्रहण किया है। यह रूपादि का अभिमान शरीर निवेगता से नष्ट हो जाता है, अत: "शरीर चिन्तन से मान कषाय नष्ट हो जाती है" यह कथन सिद्ध है। नीच कुलों में जन्म, आदरणीय गुणों का अभाव, सबका अपने से द्वेष करना एवं रत्नत्रयादि का लाभ न होना ये सब मान कषाय के दोष हैं। अर्थात् मान करने के कटुफल हैं। ___ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव परिवर्तनरूप संसार से विमुख होना संसार-निर्वेद है। संसार निर्वेद में चित्त लगाने से अहंकार के भाव और उसके निमित्तों का विनाश हो जाता है। क्योंकि अहंकार में निमित्त होने वाले अनेक निन्दनीय दुर्गुण अनेक प्राणियों में पाये जाते हैं, तथा अपने में जो गुण हैं उनसे भी अतिशयशाली अनेक गुण अन्य महापुरुषों में सहज ही विद्यमान रहते हैं अत: उनका अभिमान कैसा ? संसार निर्वेद रूप ऐसा चिन्तन भी मानकषाय को नष्ट कर देता है। कुल के मान का निषेध उच्चं भवे कुलं नीचो, नीधमुच्चः प्रपद्यते। कुलानि सन्ति जीवानां, पान्थानामिव विश्रमः ॥१२८६ ।। अर्थ - जीवों को प्राप्त होने वाले कुल, पथिक के विश्रामस्थल सदृश हैं। अर्थात् जैसे पथिक के विश्रामस्थल अनियत होते हैं वैसे ही कुल भी नियत नहीं हैं। क्योंकि संसार-भ्रमण करने वाला जो जीव आज उच्चकुलीन है वही मर कर नीच कुल में जन्म ले लेता है, वैसे ही नीचकुलीन मर कर उच्चकुल में जन्म ले लेता है, अतः कुलाभिमान नहीं करना चाहिए ।।१२८६ ।। प्रश्न - श्लोक में 'कुलानि' यह बहुवचनान्त पद क्यों दिया गया है ? ___ उत्तर - यह बहुवचनान्त पद कुलों की बहुतायत दर्शाने हेतु दिया गया है क्योंकि कुलों की बहुतायत ही कुलों की अनित्यता को प्रगट करने वाला है। उच्च-नीच कुलों से आत्मा की वृद्धि-हानि नहीं होती हानि-वृद्धी प्रजायेते, नीचोच्चासु न योनिषु । सर्वत्रोत्पद्यमानस्य, जीवस्य सम-मानता।।१२८७।। अर्थ - नीच और उच्च कुलों में जन्म लेने से जीव के आत्मप्रदेशों में हानि-वृद्धि नहीं होती। वह तो सर्वत्र एवं सर्व कुलों में नियमतः असंख्यात प्रदेश वाला ही रहता है।।१२८७ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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