SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. मरणकण्डिका - २४५ विधिनोप्तस्य सस्यस्य, वृष्टिर्निष्पादिका यथा । तथैवाराधना-भक्तिश्चतुरङ्गस्य जायते ।।७८३ ।। अर्थ - जैसे विधि का अर्थात् धान्य उत्पन्न करने के सम्पूर्ण कार्यों का आश्रय कर जमीन में बीज बोने के अनन्तर जलवृष्टि होने से फल की निष्पत्ति होती हैं, वैसे ही अर्हन्तादि पूज्य पुरुषों की भक्ति करने से ही दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र रूपी फल उत्पन्न होते हैं ||७८३ || प्रश्न - विधि किसे कहते हैं? उत्तर- जिससे कार्य किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं। अतः विधि का अर्थ है अनुकूल कारणों का समूह | वन्दना - भक्ति-मात्रेण, पद्मको मिथिलाधिपः । देवेन्द्र - पूजितो भूत्वा बभूव गणनायकः ॥ ७८४ ॥ 3 अर्थ - तीर्थंकर की वन्दना के अनुराग मात्र से मिथिलानगर का राजा पद्मरथ देवेन्द्र द्वारा पूजित हुआ और वासुपूज्य तीर्थंकर का गणधर हुआ ॥३७८४ ॥ * जिनेन्द्रभक्त राजा पद्मरथ की कथा वे मगधदेश के अन्तर्गत मिथिलानगरी में परमोपकारी, दयालु और नीतिज्ञ राजा पद्मरथ राज्य करते थे । एक दिन शिकार खेलने गये। वहाँ उनका घोड़ा दौड़ता हुआ कालगुफा के समीप जा पहुँचा । गुफा में सुध मुनिराज विराजमान थे। मुनिराज के शुभ दर्शनों से महाराज पद्म अति प्रसन्न हुए। घोड़े से उतरकर उन्होंने भक्तिभावसे मुनिराजको नमस्कार किया। महाराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया जिससे वे अति प्रसन्न हुए और विनीत शब्दों में बोले - गुरुराज ! आपके सदृश और कोई मुनिराज इस पृथ्वी पर है या नहीं ? यदि है तो कहाँ पर है ? मुनिराज बोले- राजन् ! इस समय इस देश में साक्षात् १२वें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी विद्यमान हैं, उनके सामने मैं तो अति नगण्य हूँ | मुनिराजके वचन सुनकर राजाके मनमें भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई और वह अपने परिजन पुरजनोंके साथ भगवानके दर्शनार्थ चल पड़ा। उसी समय धन्वन्तरि चरदेव अपने मित्र विश्वानुलोम चर ज्योतिषी देव को धर्मपरीक्षाके द्वारा जैनधर्मकी श्रद्धा करानेके लिये वहाँ आया, उसने भगवान के दर्शनार्थ जाते हुए राजा पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भक्तिरस से भरा हुआ राजा मन्त्रियों द्वारा समझाये जाने पर भी नहीं रुक सका, तथा “ॐ नमः वासुपूज्याय " बोलता हुआ आगे बढ़ता ही गया। समवसरण में पहुँच कर राजा ने जन्म-जन्मान्तरों के मिथ्या भावों को नष्ट कर देने वाले भगवान वासुपूज्य के पवित्र दर्शन किये, पूजन की और उपदेश सुना और वे उसी समय दीक्षा लेकर तपस्वी हो गये। उनके परिणामों की इतनी विशुद्धि हुई कि उन्हें तत्काल मन:पर्ययज्ञान हो गया और वे भगवान के गणधर हो गये । समानिका छन्द रोग - मारि-चौर - वैरि-भूप भूत- पूर्वकाणि । भक्तिराशु दुःखदा निहन्ति सेविताऽखिलानि ।। ७८५ ॥ इति भक्ति: । +
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy