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________________ मरणकण्डिका - ५११ नोकर्मद्रव्य-परिवर्तन - किसी एक जीव ने एक समय में तीन शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर के एव छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण किया और दूसरे समय में उस द्रव्य की निर्जरा कर दी। ग्रहण करते समय जीव के तीव्र, मध्यम या मन्द जैसे भाव रहे हों और उन गृहीत पुद्गलों में जैसा स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण रहा हो वही विवक्षित है। उसके पश्चात् अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण करके, अनन्तबार मिश्र को ग्रहण करके मध्य में गृहीत और आगृहीत को अनन्तबार ग्रहण करके वे पूर्व विवक्षित पुद्गल उसी जीव के उन्हीं भावों से जब नोकर्मरूप को प्राप्त होते हैं तब प्रारम्भ से उतने काल समुदाय को नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कर्मद्रव्य परिवर्तन - नोकर्मद्रव्य परिवर्तन करने वाले उसी जीवने जैसे स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्णवाले जिस तीव्र, मध्यम एवं मन्दभावों से अष्ट कर्मों के योग्य कर्म पुद्गल द्रव्य का समयप्रबद्ध रूप से एक समय में ग्रहण किया, पश्चात् एक समय अधिक एक आवली काल के पश्चात् द्वितीयादि समयों में उन्हें भोग कर छोड़ दिया । पश्चात् अनन्तबार अगृहीत, अनन्त बार मिश्र एवं अनन्तबार गृहीत को विधिविधान पूर्वक ग्रहण कर एवं छोड़ कर जब वही जीव उन्हीं भावों से और उसी प्रकार के स्पर्श-रसादि गुणों से युक्त उन्हीं कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करे तब प्रारम्भ से लेकर उतने काल समुदाय को कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। तथा नोकर्मद्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन के अनन्त-कालात्मक समूह को द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। क्षेत्र परिवर्तन भूत्वा भूत्वा मृतो यत्र,जीवो मेऽयमनन्तशः। अणुमात्रोऽपि नो देशो, विद्यते स जगत्त्रये ।।१८६६॥ अर्थ - तीन लोक में ऐसा कोई एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मेरे इस जीव ने अनन्तबार जन्म ले-लेकर मरण न किया हो। अर्थात् अनेक अवगाहनाओं के साथ इस जीव ने क्षेत्र-परिवर्तन रूप संसार में परिभ्रमण किया है॥१८६६॥ प्रश्न - क्षेत्र परिवर्तन के कितने भेद हैं और उनका क्या स्वरूप है? उत्तर - क्षेत्रपरिवर्तन के दो भेद हैं। स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन । स्वक्षेत्र परिवर्तन - एक जीव सर्वजघन्य अवगाहना के प्रदेशों का जितना प्रमाण है उतनी बार जघन्य अवगाहना को धारण कर पश्चात् क्रमश: एक-एक प्रदेश अधिक-अधिक की अवगाहनाओं को धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त अवगाहनाओं को जितने समय में धारण कर सके उतने काल-समुदाय को एक स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। परक्षेत्र परिवर्तन - सूक्ष्म निगोदियालब्ध्यपर्याप्तक जीव सर्वजघन्य प्रदेश वाला शरीर लेकर सुदर्शन मेरु के नीचे मध्य में अचलरूप से स्थित लोक के इन अष्ट मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण कर एक श्वास के अठारहवें भाग तक जीवित रह कर मरा। वही जीव पुनः उसी अवगाहना को लेकर उसी स्थान पर दूसरी, तीसरी एवं चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाश में जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी क्रम से वहीं उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोग-भोग कर मरण को प्राप्त होता रहा। पश्चात् एक-एक प्रदेश के अधिक क्रम से जितने काल में सम्पूर्ण लोक को अपना जन्मक्षेत्र बना ले उतने काल समुदाय को एक परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं और इन्हीं सब को क्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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