SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका -५०९ प्रश्न - मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग जब ये चारों संसार-भ्रमण के कारण हैं तब यहाँ मात्र मिथ्यात्व को ही क्यों कहा गया है ? उत्तर - मिथ्यात्व का ग्रहण असंयम आदि का उपलक्षण है क्योंकि जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ असंयम आदि भी अवश्यमेव हैं। अन्य बात यह है कि यह जीव अनाटिकाल से मिथ्यात्व के कारण ही संसार रूपी अट में भटक रहा है। दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से यह मिथ्यात्व परिणाम होता है । इस परिणाम से युक्त जीव मिध्यादृष्टि कहे जाते हैं। चार घातियाकर्म नाश कर देने वाले जिनेन्द्र देव के वचन जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने में दक्ष होते हैं और वे वचन प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से अविरुद्ध भी होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को उन कल्याणकारी वचनों पर एवं वचनों द्वारा कहे गये जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान नहीं हो पाता अत: वह जीव अनन्त संसार में भ्रमण करता रहता है। एक बार सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद संयमादि के साथ बीच अधिक से अधिय सुद्गल परिवर्तन काल तक ही भ्रमण करता है, अत: यहाँ मिथ्यात्व को ही संसार-वन में भटकने का कारण कहा गया है। संसार रूपी महासमुद्र का स्वरूप अनेक-दुःख-पानीये, नाना-योनि-भ्रमाकुले । अनन्तकाय-पाताले, विचित्रगति-पत्तने ॥१८६०॥ राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोहादियादसि। अनेक-जाति-कल्लोले, बस-स्थावर-बुद्दे ।।१८६१ ।। जीव-पोतो भवाम्भोधी, कर्म-नाविक-चोदितः। जन्म-मृत्यु-जरावर्ते, चिरं भ्राम्यति सन्ततम् ।।१८६२॥ अर्थ - जिसमें अनेक प्रकार का तीव्र दुखरूपी जल भरा है, नाना अर्थात् चौरासी लाख योनि रूप भँवरों से व्याप्त है, अनन्तकाय साधारण वनस्पति रूप पातालों से युक्त है, जिसके तट पर विचित्र चार गतिरूप बेला पत्तन स्थित हैं, जो राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ एवं मोहादि रूप भयंकर मगरमच्छादि जलचर जीवों से भरा है, एकेन्द्रिय आदि अनेक जाति रूप तरंगों से तरंगित है, बस-स्थावर जीवरूप बुबुदों से भरपूर है अर्थात् जिसमें ऐसे बुबुदे उठ रहे हैं और जिसमें जन्म, मरण, जरा रूप आवर्त है ऐसे संसार रूपी भयावह समुद्र में कर्मरूपी खेवटिया के द्वारा चलाया गया यह जीव रूपी जहाज चिरकाल से सतत भ्रमण कर रहा है।।१८६२, १८६१, १८६२॥ प्रश्न - अनन्तकाय किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्त जीवों के काय अर्थात् शरीर को अनन्तकाय कहते हैं। अथवा "यह शरीर इसी जीव का है" ऐसा अन्त अर्थात् निश्चय जहाँ नहीं है वह काय अनन्त है, क्योंकि एक शरीर के आश्रित अनन्त जीव समान रूप से रहते हैं। वह अनन्तकाय जिस जीव की है वह अनन्तकाय है। प्रश्न - संसार को समुद्र की उपमा क्यों दी है ? -- 135 ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy