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________________ मरणकण्डिका - २१५ पृथ्वी अर्थात् भूमिमय संस्तर का कथन नि:स्निग्धत्व-सुखस्पर्शः, प्रासुको निर्बिलो घनः । संस्तर: क्रियते क्षोणी-प्रमाण-रचितः समः॥६७० ।। अर्थ - जो भूमि गीली न हो, सुख-स्पर्शवाली हो, प्राप्नुल अर्थात् नारी आदि जीदों से रहित हो, बिल एवं छिद्र रहित हो, घन अर्थात् ठोस हो, तथा क्षपक के शरीर बराबर प्रमाणवाली हो। ऐसा संस्तर सम भूमि पर होना चाहिए ॥६७० ॥ शिलामय संस्तर विध्वस्तोऽस्फुटितोऽकम्पः, समपृष्ठो विजन्तुकः । उद्योते मसृणः कार्यः, संस्तरोऽस्ति शिलामयः ॥६७१॥ अर्थ - आग से, कूटने से अथवा घिसने से प्रासुक हो, टूटा-फूटा न हो, निश्चल हो, समतल हो, सब ओर से जीव रहित हो, प्रकाशयुक्त हो और चिकना हो। ऐसा शिलामय संस्तर करना चाहिए ।।६७१ ।। फलक या काष्ठमय संस्तर लघुर्भूमिसमो रुन्द्रो, नि:शब्दः स्वप्रमाणकः। एकाङ्गः संस्तरोऽछिद्रः, श्लक्ष्ण: काष्ठमयो मतः॥६७२॥ अर्थ - जो लघु अर्थात् हल्का हो, सब ओर से भूमि से लगा हुआ हो, अर्थात् फड़ जैसा हो, अथवा पाटे सदृश चार-पाँच अंगुल भूमि से ऊँचा हो, अधिक ऊँचा न हो, क्योंकि उसमें क्षपक को गिरने आदि से अपाय होने की सम्भावना बनी रहती है, रुन्द्र हो, नि:शब्द हो, अर्थात् खट-खट शब्द न करता हो, क्षपक के शरीर प्रमाण हो, एक ही लकड़ी से रचित हो, छिद्ररहित हो और चिकना हो, ऐसा काष्ठमय संस्तर होना चाहिए ।।६७२।। तृणमय संस्तर कृत्यस्तृणमयोऽसन्धिः, संस्तरो निरुपद्रवः। नि:सम्पूछेरपच्छिद्रो, मृदुः सुप्रतिलेखनः ।।६७३ ।। अर्थ - जो सन्धि रहित हो, निरुपद्रव अर्थात् गाँठ रहित तृण से बना हो, सम्पूर्छन जीवों से रहित हो, छिद्र रहित हो, कोमल घास से निर्मित हो तथा जो सुखपूर्वक अर्थात् सहजता से शोधा जा सके ऐसा तृणमय अर्थात् घास का संस्तर करना चाहिए ॥६७३|| संस्तरारोहण प्रमाण-रचितो योग्यः, काल-द्वितय-शोधनः । आरोढव्यस्त्रिगुप्तेन, संस्तरोऽयं समाधये ॥६७४ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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