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________________ भरणकण्डल ५२५ आकाश द्रव्य के लोक के, धर्म-अधर्म द्रव्य के और एक जीव द्रव्य के प्रदेश सम संख्यावाले हैं, अत: दो प्रदेश मध्यवर्ती बने। दो का घन आठ होता है। यही घनात्मक आठ प्रदेश लोक के एवं प्रत्येक जीव द्रव्य के अचल रहते हैं। प्रश्न उत्तर - कोई एक जीव दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं उतनी बार नरक सम्बन्धी दस हजार वर्ष की जघन्याय से प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु को उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी बार तिर्यंचगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त की जघन्यायु से तिर्यंचगति में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतनी बार मनुष्यगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त की जघन्याय से मनुष्य गति में उत्पन्न हुआ । पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु को उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं उतनी बार स्वर्ग सम्बन्धी दस हजार वर्ष की जघन्य आयु लेकर देवगति में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से इकतीस सागर की आयु को पूर्ण किया, क्योंकि मिथ्यादृष्टि देव की आयु इकतीस सागर से अधिक नहीं होती। इस क्रम से चारों गतियों में भ्रमण करने में जितना काल लगे, उतने काल समुदाय को एक भव-परिवर्तन का काल कहते हैं, तथा इतने काल में जितना भ्रमण किया जाय उसे भव परिवर्तन कहते हैं। भाव परिवर्तन असंख्यलोक-मानेषु, परिणामेषु वर्तते । शरीरी भवसंसारे, कर्मभूप - वशीकृतः ।। १८६९ ।। जघन्या मध्यमा वर्या, निविष्टाः स्थितयोऽखिलाः । अतीतानन्तशः काले, भव-भ्रमण - कारिणा ।। १८७० ।। - भव परिवर्तन किसे कहते हैं ? परिणामान्तरेष्वङ्गी, सर्वदा परिवर्तते । वर्णेषु चित्र - रूपेषु, कृकलास इव स्फुटम् ।। १८७१ ।। अर्थ - जीव के अध्यवसाय स्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों को असंख्यात से गुणा करने पर जितनी राशि होती है उतने होते हैं। कर्मरूपी राजा के वशवर्ती हो यह जीव भव संसार में उन्हीं असंख्यात लोक प्रमाण अध्यवसाय रूप भावों में परावर्तन करता है। कर्मों की जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट तीनों प्रकार की कर्मस्थितियों को बाँधने में कारणभूत स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान भी असंख्यात लोक है। अतीतकाल में इस जीव ने इन सब भवभ्रमणकारी परिणामों को अनन्तबार धारण किया है। जैसे कृकलास या सरड या गिरगिट नानाप्रकार के रंग बदलता है वैसे ही यह संसारी जीव उपर्युक्त परिणामों में बदल-बदल कर प्रत्येक क्षण परिणमन करता रहता है। इसी को भाव परिवर्तन कहते हैं ।। १८६९-१८७०-१८७१ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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