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________________ मरणकण्डिका - ७७ उत्तर - मन्त्रशक्ति से कुमारी-कन्या आदि के शरीर में भूत का आवेश उत्पन्न करना, अकाल में जलवृष्टि या अमावस्या के दिन चन्द्रमा के दर्शन कराकर कौतुक दिखाना, स्त्री-पुरुष को वश करना अथवा उनका उच्चाटन करना, बालकादि के रक्षण हेतु भूतिकर्म आदि करना अथवा भूतों की क्रीड़ा दिखाना आदि क्रियाएँ जो साधु अपना ऐश्वर्य दिखाने के लिए अथवा शक्ति-सम्पदा दिखाने के लिए, मिटाहार के लिए अथवा इन्द्रियजन्य सुखों के लिए एवं ऋद्धि, रस एवं सात गारव के लिए करता है, वह आभियोग्य भावना वाला होता है। इसके प्रभाव से उस साधु का जन्म वाहनजाति के देवों में होता है। यदि कोई मुनिराज स्व-पर की आयु आदि ज्ञात करने के लिए अथवा साधुओं की वैयावृत्य करने हेतु मन्त्र प्रयोग करते हैं तथा धर्मप्रभावना हेतु कौतुक दिखाते हैं, उनके वे सब कार्य दोषयुक्त नहीं हैं। अर्थात् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रादि परिणामों में आदरपूर्ण प्रवृत्ति होने से दोषपूर्ण नहीं है। आसुरी भावना निष्कृपो निरनुक्रोशः, प्रवृत्त-क्रोध-विग्रहः। निमित्तसेवको धत्ते, भावनामासुरी यतिः॥१९१ ॥ अर्थ - जो मुनि दया रहित है, निरंकुश आक्रोशी है, क्रोध एवं कलह में ही प्रवृत्त रहता है तथा निमित्तसेवक अर्थात् ज्योतिष और सामुद्रिक लक्षण आदि बता कर आहार आदि की प्राप्ति करता है उसे आसुरी भावना से युक्त जानना चाहिए ||१९१ ॥ सम्मोही भावना उन्मार्ग-देशको मार्ग-दूषको मार्ग-नाशकः । मोहेन मोहयंलोकं, साम्मोहीं तां प्रपद्यते ॥१९२ ।। अर्थ - उन्मार्ग का उपदेश देनेवाला, रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग को दूषित करनेवाला, मोक्षमार्ग का नाश करनेवाला और मोह अर्थात् कुज्ञान या अज्ञान से जीवों को मोहित करनेवाला मुनि सम्मोही भावना वाला जानना चाहिए।१९२॥ संक्लिष्ट भावनाओं का फल और उनके त्याग की प्रेरणा रत्ननयं विराध्याभिर्भावनाभिर्दिवं गतः । भीषणे भव-कान्तारे, चिरं बंभ्रम्यते च्युतः ॥१९३॥ पञ्चेति भावनास्त्यक्त्वा, संक्लिष्टः समितो यतिः। षष्ट्यां प्रवर्तते गुप्तः, संविग्रः सङ्ग-वर्जितः ॥१९४ ॥ अर्थ - जो मुनि इन खोटी भावनाओं द्वारा रत्नत्रय की विराधना करते हैं वे मरण कर देवदुर्गति अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं, पश्चात् वहाँ से च्युत होकर संसाररूपी भीषण अटवी में बार-बार भ्रमण करते हैं।।१९३ ।। इस प्रकार इन संक्लिष्टरूप पाँचों भावनाओं का त्याग कर जो मुनि पाँच समितियों को पालता है, तीन
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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