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________________ मरणकण्डिका - ५७६ द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया था। उनके राज्य-अवस्थाके पुत्र भरत थे, जो एकसौ एक भाइयोंमें सर्वजेष्ठ पुत्र थे। महापुण्योदयसे राजा भरत की आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। संपूर्ण छह खंडोंको जीतकर भरत षट्खंडाधिपति चक्रवर्ती हुए; उनके हजारों पुत्र हुए। उनमें विवर्द्धनकुमार को आदि लेकर कई पुत्र मूक हुए थे- बोलते नहीं थे। किसी दिन चक्रवर्ती उन्हें लेकर समवशरणमें भगवान आदिनाथके दर्शनार्थ गये। समवशरण सभामें बैठकर दिव्यध्वनि सुनते ही वे सब कुमार विरक्त हुए। दिव्यध्वनिमें अपने पूर्वभवोंको सुनकर वैराग्यसे ओतप्रोत होकर तत्काल प्राप्त हुई शक्तिके द्वारा अर्थात् गूंगापन नष्ट हो जानेपर उन्होंने आदि प्रभुसे जिनदीक्षा ग्रहण की, इसतरह उनको लेश्याकी अत्यंत विशुद्धि प्राप्त हुई। छठे-सातवें गुणस्थानोंमें परिवर्तित होते हुए उन्होंने मुहूर्त प्रमाण कालमें ही शुक्लध्यानको प्राप्त किया। क्षपक श्रेणी में क्रमश: आरोहण कर घातिया कर्मोंको नष्ट किया तथा अधातिया कर्माको भी नष्ट कर सिद्धपद पाया । इसतरह अत्यंत अल्पकालमें उन्होंने शाश्वत सुखको पाया था। अतः भव्य जीवोंको चाहिए कि कालको न देखे कि अब अल्पकाल ही रह गया है कैसे आत्मकल्याण करें? इत्यादि, जब आत्मबोध हो तभी वैराग्य धारणकर आत्महित कर लेना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यानमरण के उपसंहार की और इंगिनीमरण कथन की सूचना प्रोक्ता भक्त प्रतिज्ञेति, समास-व्यास-योगतः। इदानीमिङ्गिनीं वक्ष्ये, जन्म-कक्ष-कुठारिकाम्॥२१०२॥ अर्थ - इस प्रकार मेरे द्वारा संक्षेप एवं विस्तार से भक्तप्रतिज्ञामरण का संक्षेप एवं विस्तार से वर्णन किया गया है। अब जन्म रूप वन को काट फेंकने के लिए जो कुठार के सदृश है, उस इंगिनीमरण का वर्णन करूँगा ॥२१०२॥ उक्तो भक्तप्रतिज्ञाया, विस्तारो यत्र कश्चन । इङ्गिनीमरणेप्येष, यथायोग्यं विबुध्यताम् ॥२१०३॥ अर्थ - भक्तप्रतिज्ञामरण में आराधना की जो विधि कही गई है वह इंगिनीमरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिए।।२१०३॥ इंगिनीमरण की विधि एवं उसके स्वामी का कर्तव्य प्रव्रज्या-ग्रहणे योग्यो, योग्यं लिङ्गमधिष्ठितः। कृत-प्रवचनाभ्यासो, विनयस्थः समाहितः॥२१०४ ।। निष्पाद्य सकलं संझं, इङ्गिनीगत-मानसः। श्रितिस्थो भावित-स्वान्तः, कृत-सल्लेखना-विधिः ॥२१०५।। अर्थ - जो दीक्षा ग्रहण करने योग्य है वह निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर श्रुत का अभ्यास अर्थात् आगम में अवगाहन करता है। विनय गुण में स्थित वह साधु समता परिणाम से अपने संघ को मुनियों के आचरण की साधना में योग्य बना कर तदनन्तर स्वयं अपने मन को इंगिनीमरण साधन के योग्य दृढ़ करता है। पश्चात् उत्तरोत्तर शुभ परिणामों की श्रेणी पर आरोहण करता है, कन्दर्पादि भावनाओं के त्यागपूर्वक
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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